‘सच्ची कविता’ के सच्चे प्रभाव को रेखांकित करते हुए बालकृष्ण भट््ट ने एक ऐसी ‘चोट’ से अवगत कराया है, जो कोई कविता पढ़ या सुन कर सीधे चित पर लगती है और शायद उसे कोई कभी नहीं भूलता? ‘उस चोट में ऐसी क्या बात है, जिसके खाने को जी सदैव चाहा करता है?’ वास्तव में यह सच्चे भावों का उद्गार शब्दों के माध्यम से होने पर बनी कविता का प्रभाव है, जो नियमों की जकड़ से सर्वथा परे है। और यही कारण है कि यह सच्ची कविता कहीं सीधे पाठक या श्रोता के अंतर्मन से जुड़ती है, तो कहीं ‘चोट’ करती है। पहले अनुभूति की जितनी प्रबलता काव्य में थी, आज उस रूप में शायद ही मिलती है। दूसरा, तब के कवियों में संवाद की परंपरा थी, आज उस लीक पर कविता तो की जा सकती है, पर संवाद की उपस्थिति वहां न होने से उसकी महत्ता उन अर्थों में परिलक्षित नहीं होगी। अगर संवाद की परंपरा बदलती कविता के साथ जुड़ी रहेगी तो फिर वह कोई ग्राम्य कविता हो या महानगरीय, उसका ‘सच्ची कविता’ होना अपने अर्थों में लक्षित होगा।

अगर किसी सिद्धांत पर रख कर कविता नहीं की जाएगी, बल्कि भावों की वास्तविक परिणति शब्दों के रूप में कविता का आकार लेगी तो हो सकता है गांभीर्य उसमें स्वत: आ जाए। कविता में गंभीरता निरूपित करने का कोई सिद्धांत भी नहीं है, इसलिए समय और समाज के बदलाव के अनुसार कविता का स्वभाव भी स्वत: परिवर्तित होता जाए तो हो सकता है ऐसी कविता अपने सही अर्थों में सच्ची कविता हो!

कविता पहले ग्रामीण हुए बिना प्रचलित नहीं हो सकती ‘क्योंकि गांव के गीतों में आज भी विभिन्न जनों का संबोधन है, साथ ही किसी भी रूप में कविता में सामाजिक रूप अभिव्यक्त होता है, यही महत्त्वपूर्ण है, फिर चाहे वह ग्रामीण कविता हो या नागर संस्कृति की ‘उच्च श्रेणी’ की कविता। उस कविता में आए समाज के लिए वह कितनी सच्ची है, इसका अनुमान भी तभी लगेगा जब पाठक या श्रोता उससे स्वयं को जुड़ा महसूस करेगा और कविता की चिंता समाज की चिंता बनेगी।

हालांकि ‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के आवरण चढ़ते जाएंगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन होता जाएगा’। पर शुक्लजी द्वारा दिखाए परिवर्तन के बाद भी कविता की सामाजिकता ज्यों की त्यों बनी रहेगी। वह पहले भी मनुष्य के भावों द्वारा समाज में रह रहे मनुष्य के लिए की जाती रही है, आगे भी उसका स्वरूप भले बदल जाए, पर कवि कर्म कठिन होने के बावजूद कविता का उद्देश्य नहीं बदलेगा। इसे हम कविता की सामाजिकता कह सकते हैं।

कविता में उसके तथ्य विशेष महत्त्व के होते हैं, फिर ‘तथ्य चाहे नर क्षेत्र के ही हों चाहे अधिक व्यापक क्षेत्र के, कुछ प्रत्यक्ष होते हैं कुछ गूढ़।’ शायद तभी कविता को समझना और समझाना गहरे पानी पैठने जैसा होता है। कुछ गूढ़ तथ्यों के अर्थ अत्यंत गूढ़ होते चले जाते हैं, कुछ साधारण-सी लगने वाली बातें भी कविता में आने पर अद्भुत और असाधारण प्रतीत होती हैं। अगर कविता मनुष्य को मनुष्यत्व की उच्चतम भाव-भूमि पर ले जाए तभी वह ‘दवा’ है, जो क्रूर के हृदय में भी वात्सल्य का संचार कर सकती है। तभी तो ‘कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर उसके उपरांत कुछ और भी होता है और वही ‘और’ सब कुछ है। मनोरंजन वह शक्ति है, जिससे कविता अपना प्रभाव जमाने के लिए मनुष्य की चित्तवृत्ति को स्थिर किए रहती है, इधर-उधर जाने नहीं देती।’

अगर कविता से महज मनोरंजन होता, तो आज कविता का अस्तित्व ही नहीं रहता, जबकि आज मनोरंजन के इतने दूसरे माध्यम आ गए हैं। यह महज परिवर्तन और समय सापेक्ष फर्क ही है। हम देखते हैं कि हिंदी साहित्य में आदिकाल से चली आ रही कविता की परंपरा आधुनिक काल में आकर एकदम हाशिए पर चली जाती है, क्यों? पर मिटती फिर भी नहीं है, क्योंकि कविता जीवन से होकर आती है, इसलिए आज भी है और आगे भी रहेगी। युग के अनुरूप इसके स्वरूप में परिवर्तन भले होते रहें।

‘सौंदर्य बाहर की नहीं, मन के भीतर की वस्तु है’ शुक्लजी के शब्दों में इसे सिर्फ कौड़ी समझना चाहिए। पर सुंदरता देखने वाले की आंखों में होती है, यह भी कुछ-कुछ ऐसी ही युक्ति है। वे कविता को देवी मंदिर के ऊंचे खुले, विस्तृत और पुनीत हृदयों को बताते हैं, पर क्या देवी के रूप में ऐसे हृदयों में विराजमान कविता के सिवाय स्तुति के कुछ हो सकता है? जिन सच्चे कवियों की बात शुक्लजी करते हैं, उनके तथ्यों की ‘छाया’ में ही कविता का निवास होना जरूरी है। शायद तभी वह आमजन की बात कह पाए।