जब से सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ा है, मेरे जैसे विशुद्ध आलसियों का जीवन नरक हो गया है। इसका अहसास हाल में ही बीती मकर संक्रांति के दिन जरा ज्यादा ही हुआ। दरअसल, पहले मकर संक्रांति, यानी खिचड़ी का मतलब नहाना और खिचड़ी, दही-चिउड़ा, तिलकुट खाना भर था। कई बार नहीं नहाने वाले लोग भी इस दिन जरूर नहाते हैं। मेरे एक मित्र हैं, जिनके लिए नारा लगता था- ‘अमुक जी के तीन नहान, खिचड़ी, फगुआ औ सतुवान।’ खैर, अब एक नया पेच फंस गया है- ‘हैप्पी खिचड़ी’ जैसे संदेशों का जवाब देने का। इस नए साल के मौके पर शुभकामनाओं का ऐसा रेला मोबाइल फोन में आया कि एक-एक का जवाब देते-देते दूसरा नया साल लग जाए। साल भले नया हो, वही मैसेज जब तेरह वाट्सऐप समूहों से घूमते हुए चौदहवीं बार आपके सामने नमूदार होता है तो जी करता है कि मुंह नोच लें।
गनीमत यही होती है कि किसका मुंह नोचना है, पता नहीं चलता। कभी-कभी शुभकामनाओं की सुनामी में ऐसे लोग भी शामिल पाए जाते हैं जो पिछले साल आपका ‘गला काट’ चुके होते हैं। तो कुछ मजबूरन और कुछ मसलातन नए साल की शुभकामना से निपटा ही था कि मकर संक्रांति आ धमकी। तरह-तरह की रंगीन पतंगों से लेकर दही-चिउडा, तिलकुट और अन्याय चीजों की दिलफरेब तस्वीरों से सजी शुभकामनाएं। पहले तो मन हुआ कि छोड़ दें। अभी तो सबको नए साल पर निपटाया है। मैंने खुद को जी भर कोस लिया और तुरंत ‘मैसेज भेजो अभियान’ में जुट गया। यह काम करते हुए सोचने लगा कि भारतीय दिमाग कितना बेहतरीन था त्योहारों के मामले में। कार्य विभाजन स्पष्ट होता था। होली में हुड़दंग करना पुरुषों के जिम्मे, मुहल्ले भर के लिए गुझिया बनाना महिलाओं के जिम्मे। अब उनकी कमर रहे, चाहे जाए! सीधी हो या फिर टूट ही क्यों न जाए, उनकी बला से। दीपावली में जुआ खेलना और मंतर जगाना पुरुषों के जिम्मे और साफ-सफाई से लेकर तरह-तरह की सजावट करना महिलाओं का काम। ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएंगे।
अब तो इस सोशल मीडिया के चक्कर में पत्नी भी कह देती है कि बैठे ही हो तो मेरे मैसेज भी निबटा दो। सो, दोनों हाथ में मोबाइल लिए मैसेज निबटाता हूं। चार के जवाब देते ही चौदह और हाजिर।अब बस यही समझ में नहीं आ रहा कि मैं मैसेजों को निपटा रहा हूं या मैसेज ही मुझे निपटा रहे हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि कौन खलिहर बैठा हर मौके के लिए मैसेज गढ़ता-बनाता रहता है। हमारे एक मित्र घर पधारे। मैं भारी उलझन में पड़ गया। सोच नहीं पा रहा था कि मित्र महोदय के आने से मुझे खुशी हुई या गम। उनके आने से ‘मैसेज भेजो अभियान’ में बाधा पड़ सकती थी, सो गम की स्थिति बन रही थी। वहीं एकरसता टूटने, कुछ गप-शप करके खुश होने की स्थिति भी थी। मैंने इस उलझन को अपनी जगह बने रहने दिया और बिना अपना हाथ रोके उन्हें बैठाया। बिना हाल-चाल पूछे थोड़ी देर पहले अपने मन में उठा सवाल उन पर दाग दिया- ‘कौन खलिहर बैठा हर मौके के लिए मैसेज गढ़ता बनाता रहता है?’ वे भी मेरी तरह अध्यापक हैं। फर्क इतना ही कि वे मार्केटिंग पढ़ाते हैं।
लिहाजा उन्हें भी सिर्फ प्रश्न पूछने की आदत थी, उत्तर देने की नहीं। वे अचकचाये। सहज होने में थोड़ा समय लिया और असली अध्यापक की तरह बोले- ‘बंधु अब आप भी न! मार्केटिंग नहीं जानते नहीं हैं। जानते तो यह सवाल न पूछते!’ असली अध्यापक की यह भी खासियत है कि उसे अगर कभी जवाब देना पड़ जाता है तो वह सबसे पहले सामने वाले को अज्ञानी साबित करता है। फिर जो बात तीन लफ्जों में खत्म की जा सकती है, उसे तेरह या तेईस लफ्ज में समेट कर रख देता है। यानी कान सीधे नहीं पकड़ कर घुमा कर पकड़ना। वे बोले- ‘देखिए! पहले दुनिया न्यूटन के गति के नियम से चलती रही होगी, अब नहीं। अब दुनिया मार्केटिंग के नियम से चलती है। पहले आवश्यकता आविष्कार की जननी होती होती थी। लेकिन अब आविष्कार आवश्यकता की जननी है। जिस चीज का आविष्कार हो गया, वह थोड़े दिन में आवश्यकता कौन कहे, हमारी अनिवार्यता बन जाती है। मार्केटिंग गुरु कोटलर का महान कथन आपने सुना ही होगा कि जिसके सिर पर बाल नहीं हों, उन्हें कंघा बेचना ही मार्केटिंग है।’ मैंने बीच में टोका और कहा कि मैंने आपसे पूछा, मैसेज कहां बनते हैं और आप लगे मार्केटिंग पढ़ाने। त्योहारों का मार्केटिंग से क्या लेना-देना। वे एकदम खफा हो गए। बोले कि समझिए यह सब मार्केटिंग की ही देन है। जैसे लुभावने मैसेज आते हैं, वैसे ही लुभावने उत्पाद भी बाजार में आते हैं। हमारे मार्केटिंग गुरु ने परंपराओं, रीति-रिवाजों, स्वास्थ्य और यहां तक कि राष्ट्र आदि की मार्केटिंग पर किताब लिखी है। देखते नहीं कि मैंनेजमेंट की पढ़ाई सबसे महंगी होती है। वहां यही सब सिखाया जाता है। सो, बात को समझिए। सब कुछ मार्केटिंग है। मेरा माथा घूम गया और मैं लगा भकुआ कर देखने!