कहते हैं, नाम में क्या रखा है! मगर यह अब पुरानी बात हो चुकी है। आज हम कह सकते हैं कि नाम में बहुत कुछ रखा है। हालांकि किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके रूप, गुण और कार्यों से हो सकती है। उसकी ख्याति का आधार उसके अच्छे-बुरे कर्म भी हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए भी आखिरकार एक नाम की आवश्यकता तो होगी ही। सामाजिक स्तर पर पहचान का मूल आधार तो नाम ही है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- ‘रूप व्यक्ति सत्य है, नाम समाज सत्य। नाम उस पद को कहते हैं जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। आधुनिक शिक्षित लोग जिसे ‘सोशल सैंक्शन’ कहा करते हैं।’ नाम न केवल व्यक्तित्व को सार्थकता प्रदान करता है, बल्कि अभौतिक रूप से व्यक्ति की उपस्थिति भी दर्ज कराता है।

मेरी एक मित्र ने हाल ही में अचानक अपने नाम में थोड़ा-सा परिवर्तन कर लिया। यह बदलाव थोड़ा हैरान करने वाला था। यों सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर आजकल नाम परिवर्तन का एक चलन दिख रहा है। हालांकि यह परिवर्तन स्त्री-पुरुष दोनों में दिखाई देता है, पर दोनों में इसके रूप अलग-अलग हैं। इनमें पहला वर्ग उनका है जो अपने नाम के साथ पति का पूरा नाम लिख रही हैं। बदले हुए नाम के साथ उदाहरण रखूं तो ‘रिया सिंह’ अब अपना नाम ‘रिया रवींद्र सिंह’ और श्रेया सक्सेना अब ‘श्रेया विभास गर्ग’ लिख रही हैं। दूसरा वर्ग उनका है जो पति के नाम के सिर्फ सरनेम को अपने नाम के आगे जोड़ कर संतुष्ट हैं।
दिलचस्प है कि यह वर्ग अपने सरनेम यानी जातिबोधक टाइटिल का मोह नहीं छोड़ पा रहा है। मसलन, अगर किसी का सरनेम पांडेय है तो उन्होंने इसके बाद शुक्ला भी जोड़ लिया। तीसरा वर्ग उन समर्पित नववधुओं का है जो विवाह के बाद पूरी तरह वर-पक्ष की कुल परंपरा को अपने नाम के साथ जीवित रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं। पुरुषों में भी यह परिवर्तन उपनाम या जातिवाचक शब्दों में दिखाई देता है। मसलन, रत्नेश सिंह ‘ठाकुर’, विकास तिवारी ‘द्विज’, संजय सिंह ‘राजपूत’ आदि अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं, जिनमें लोग नाम और जाति के टाइटिल के अलावा भी अलग से शब्द जोड़ कर खुद को खास बनाने का प्रयास कर रहे हैं। ये बदलाव संकीर्णता के नए बनते दायरे की तरफ संकेत करते हैं।

एक पंखे के विज्ञापन ने पति द्वारा पत्नी का सरनेम लगाने की हवा तो बहुत चलाई, पर सामाजिक स्तर पर इस कदम को मान्यता नहीं मिल पाई। मामला बस उपनाम बदलने का नहीं है, बल्कि पुरुष-सत्ता बनाम स्त्री-सत्ता का भी है। पुरुषों ने कभी स्त्री के सरनेम को अपने नाम के साथ नहीं लगाया। फिर आखिर वह कौन-सी लाचारी या बेबसी है जो अस्तित्व की पहचान पर संकट पैदा कर रही है। इस परिवर्तन के पीछे क्या सिर्फ भावुकता या प्रेम है जो स्त्रियों को जया भादुड़ी से जया बच्चन और ऐश्वर्या राय से ऐश्वर्य राय बच्चन हो जाना पड़ता है? या फिर यह कुछ शब्दों का आकर्षण और स्थापित महत्ता का मोह है।
याद आता है कि अपने साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसा बहुत बार हुआ है कि साहित्यकार छद्म नाम से लिखा करते थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र को पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा जाता है। उन्होंने ‘रसा’ नाम से गजलें लिखीं। कुछ ने तो दो-तीन नामों का भी प्रयोग किया। जयशंकर प्रसाद भी पहले ‘झारखंडी’ और ‘कलाधर’ के नाम से लिखते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सुकवि किंकर’ और ‘कल्लू अल्हैत’ नाम से लिखा। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘व्योमकेश शास्त्री’ और ‘बैजनाथ द्विवेदी’ नामों का प्रयोग किया। मैथिलीशरण गुप्त ने ‘रसिकेंद्र’ और ‘मधुप’ उपनाम से सृजन किया। इसी तरह, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, ‘त्रिशूल’, ‘तरंगी’ उपनाम से प्रतिष्ठित हुए। जगन्नाथ दास आज भी ‘रत्नाकर’ और ‘जकी’ नाम से जाने जाते हैं।

नागार्जुन ने ‘यात्री’ के नाम से बहुत कविताएं लिखीं। अज्ञेय ने भी ‘कुट्टीचातन’ नाम से निबंध लिखे तो पांडेय बेचन शर्मा उग्र ने ‘अष्टावक्र’ नाम से कहानिया लिखीं। राम विलास शर्मा का ‘अगिया बैताल’ आज भी चर्चा में बना हुआ है। अमृतलाल नागर ने भी ‘तस्लीम लखनवी’ छद्मनाम से पत्र-पत्रिकाओं में लेखन किया और आश्चर्य की बात यह है कि उन्हें असली नाम के मुकाबले इस नाम से लिखने पर अधिक पारिश्रमिक मिलता था। लेकिन इन उपनामों और छद्म नामों में लेखन के बाद भी आज इन साहित्यकारों की पहचान उनके मुख्य नाम से ही होती है। कहने का मतलब यह कि इनके नाम बदलने के पीछे कोई स्वार्थ नहीं था। दूसरी ओर, यह जगजाहिर तथ्य है कि प्रख्यात लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने बार-बार कहे जाने पर भी अपना सरनेम ‘वाल्मीकि’ नहीं बदला और एक अदद घर के लिए दर-दर भटकते रहे।नाम परिवर्तन किसी भी व्यक्ति का निजी मामला हो सकता है और किसी भी दूसरे व्यक्ति को इस बात से आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन इसके सामाजिक संदर्भों पर बात करना समाज अध्ययन के आयामों को विस्तार ही देगा।