समय और समाज के बदलते दौर में भी कई बार ऐसे लोगों और उनकी मानसिकता से सामना होता है जो एक जगह ठहरे रहने की जिद पर अड़े रहते हैं। जबकि यह जड़ता किसी भी व्यक्ति या समाज के लिए सकारात्मक नहीं भी हो सकती है। पिछले दिनों एक मित्र ने सहजीवन में रहने वाले एक युगल के बारे में नकारात्मक टिप्पणी की जो मुझे एक जड़ सोच से संचालित लगी। उसे सहजीवन में लड़की का जाने का फैसला उचित नहीं लगा था। ऐसा सोचने वाले मित्र शोधार्थी भी हैं। मैंने कहा कि दो परिपक्व लोग अपने जीवन के बारे में क्या फैसला करते हैं, यह उन पर छोड़ देना चाहिए। लड़की भी शोधार्थी है और उसे अपने अच्छे और बुरे के बारे में पता है। मित्र की बातों से बस यही लगा कि प्रगतिशीलता का दावा और उसी के मुताबिक समझ में शायद काफी फासला होता है।

आखिर एक आधुनिक माहौल में पढ़ाई-लिखाई करने और रहने वाले लोगों की सोच पितृसत्तात्मक मानस से क्यों संचालित होती रहती है? यह तब है जब मित्र उस प्रेमी युगल के बारे में ठीक से नहीं जानता था। जबकि मुझे पता था कि उनके बीच पिछले आठ सालों से अच्छे संबंध थे, जातिगत पृष्ठभूमि अलग होने पर उनके घर वालों को शुरुआत में दिक्कत थी, लेकिन इसका उनके रिश्ते पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। दोनों की एक-दूसरे के साथ रहने की प्रतिबद्धता थी, वे विवाह भी करने वाले थे। देश और समाज के बारे में दोनों ही जागरूक थे और जाति और धर्म की वजह से समाज में बढ़ती दूरी पर चिंतित भी थे। यानी दो परिपक्व और समझदार लोग साथ थे और अपने बारे में अच्छा-बुरा समझते थे। मुश्किल यह है कि परंपरा के मुताबिक सोचने-समझने वाले कई लोग आज भी इस बदलाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बड़े और बालिग हो गए बच्चों का विवाह और जीवन साथी के बारे में उनके माता-पिता उनसे पूछे बिना तय करते रहे हैं। एक युगल के सहजीवन को संदेह की नजर से देखने वाले मेरे उस मित्र का ही विस्तार यह है कि रूढ़िवादी या परंपरावादी और संकुचित मानसिकता के लोग प्रेम के रिश्तों को ‘लव-जिहाद’ और विदेशी संस्कृति का दोष कह कर हिंसक विरोध करते हैं। हालांकि खुद सामाजिक व्यवस्था से तैयार मानस प्रतिष्ठा के नाम पर पिता के हाथों प्रेम करने वाली बेटी की हत्या तक करा डालता है। प्रेम तो इस तरह की अमानवीयता से आजाद समाज की रचना करता है।

देश के कुछ हिस्सों और सामाजिक तबकों के बीच विवाह के लिए स्वतंत्र तरीके से साथी के चुनाव की परंपरा है। लेकिन जनजातीय समुदायों को छोड़ दें और व्यापक स्तर पर देखें तो इस मामले में अभिभावक अपने बच्चों की इच्छा को दरकिनार ही करते हैं। शादी में माता-पिता और परिवार की इच्छा को प्रथम और अंतिम माना जाता है। खासतौर पर लड़कियों के संदर्भ में ज्यादातर अभिभावक उनकी राय तक नहीं लेते हैं। लेकिन यह भी सही है कि सीमित दायरे में सही, कुछ संवेदनशील माता-पिता अपने बच्चों से बात करके उनकी इच्छा के अनुरूप फैसले ले रहे हैं। अच्छा और मानवीय यह हो कि जीवन साथी के चुनाव के सवाल को अभिभावक अपने बच्चों का अधिकार भी मानें और समझदारी के साथ बेहतर चुनाव में उनकी मदद करें। कई बार माता-पिता और परिवार की सख्ती के कारण बच्चे अपने संबंधों के बारे में उनसे राय-मशविरा नहीं कर पाते हैं और जीवन के बारे में गलत चुनाव भी कर लेते हैं।

दूसरी तरफ बच्चों को भी इतना सक्षम होना जरूरी है कि वे अपने सामने खड़ी होने वाली परेशानियों का मुकाबला खुद करें। एक परिपक्व समझ प्रेम और घर के संबंध, दोनों को संभालने के लिए जरूरी है।यह भी एक बड़ी समस्या है कि पितृसत्तात्मक सोच में पले-बढ़े लड़के विवाह में बंधने के पहले प्रेम संबंधों में तो काफी प्रगतिशील दिखते हैं, लेकिन विवाह के बाद पारंपरिक पति की भूमिका में होना चाहते हैं। जबकि प्रेमी और प्रेमिका के संबंधों पर सामाजिक परंपराएं हावी होती हैं तो वहां व्यक्तित्व का टकराव खड़ा होता है। अपने जीवन के बारे में फैसला लेने का साहस करने वाली लड़की को अगर अधीनस्थ का जीवन जीने के लिए कहा जाएगा तो यह उसके लिए शायद ही स्वीकार्य हो। जाति और धर्म की पूर्व पहचान अगर विवाह के बाद हावी रहती है तो वहां प्रेम बाधित होता है। लेकिन यह भी सच है कि वक्त धीरे-धीरे बदल रहा है। वैवाहिक बंधन के पहले लड़के-लड़कियों का अपने जीवन साथी का चुनाव करना या किन्हीं स्थितियों में साथ रहना भारतीय समाज के दायरे में बढ़ते लोकतंत्र का परिचायक है। खासतौर पर प्रेम संबंधों में जाति और धर्म का सवाल आड़े नहीं आना एक बेहतर मानवीय समाज के बनने की राह का संकेत देता है।