देश को मुक्ति चाहिए! लेकिन वास्तव में किससे! मेरा आशय यह है कि यहां मौजूद गरीबों को गरीबी और कुपोषण से मुक्ति चाहिए, व्यवस्था से पीड़ित लोगों-समुदायों को अत्याचार और भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहिए, भूखे लोगों को भूख से और बेरोजगारों को बेरोजगारी से मुक्ति चाहिए। इस मुक्ति के लिए मौजूदा संसाधनों के अधिकतम उपयोग के माध्यम से वास्तविक समावेशी विकास चाहिए। इसके लिए अर्थव्यवस्था में व्यापक रूप में देशी-विदेशी मुद्रा का प्रवाह चाहिए। अर्थव्यवस्था में मुद्रा के सुगम अनुप्रवाह के लिए व्यवस्थित और टिकाऊ बाजार चाहिए। बाजार को निरंतर लाभकारी और गतिशील बने रहने के लिए एक ऐसा ग्राहक वर्ग चाहिए जो निरंतर उसके द्वारा उत्पादों का उपभोग करता रहे। इस क्रम में कंपनियां ग्राहकों तक अपनी पहुंच सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रायोगिक प्रयास, जैसे अपने उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार, संरचनात्मक बदलाव, छोटे-छोटे क्षेत्रों तक फैलाव करती रहती हैं। लेकिन विकास के लिए जरूरी बाजार की सफलता के पीछे समर्थन में खड़ी उदारवादी व्यवस्था कब पूंजीवादी व्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो जाती है, इसे समझने की अपेक्षा हर सामान्य नागरिक से नहीं की जा सकती है। बाजार अपने इस बदलाव के क्रम में लोगों को मानसिक रूप से उपभोक्ता बनाने का प्रयास करता है।
हर इंसान समाज में सुंदर, आकर्षक और प्रभावी दिखना चाहता है। इंसान की इसी कमजोरी को बाजार ने अपना अस्त्र बनाया और आगे बढ़ता गया। कंपनियां अपने विज्ञापनों पर यों ही इतनी बड़ी धनराशि खर्च करने को तैयार नहीं हो जाती हैं। इसके पीछे उनका भारतीय समाज के विश्लेषण से प्राप्त वह प्रबल विश्वास होता है, जिसके अनुसार एक बड़ा तबका कुछ कथित सेलिब्रिटी लोगों के आभासी जीवन के प्रति संवेदनशील रहता है और उस वर्ग के लोगों के रुझान को बाजार में किसी उत्पाद को अपनाने के लिए सुगमता से निर्देशित किया जा सकता है। आजकल टीवी पर एक विज्ञापन में यह दिखाया जा रहा है कि बीए, एमए, पीएचडी जैसी शैक्षिक योग्यता होने के बावजूद एक खास कंपनी के पेंट से अपना घर नहीं रंगवाने के कारण एक व्यक्ति को वह सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलती, जो उसे मिलनी चाहिए। वह डाकिए के हाथों भी निरंतर उपेक्षित होता है। विज्ञापन के अगले भाग में यह है कि उस खास कंपनी के पेंट से घर रंगवाने के बाद उसे वह सारी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है, डाकिए उसे सलामी देने लगते हैं। दरअसल, कंपनी इस विज्ञापन के माध्यम से यह छिपा हुआ संदेश लोगों के मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश करती है कि आपकी सारी योग्यता का मूल्य फीका रहता है जब तक आप एक खास कंपनी के पेंट से अपने घर को नहीं रंगवा लेते हैं।
इसी तरह, एक पान-मसाला के विज्ञापन में दिखाया जाता है कि उसके सेवन से ही सामाजिक उत्थान के लिए अलग-अलग रचनात्मक सोच मस्तिष्क में आने लगते हैं, जैसे गरीब बच्चों के लिए कपड़ों का इंतजाम, मां-बाप की सेवा वगैरह। उस पान-मसाला का आदर्श वाक्य है- ‘स्वाद में सोच है’। अगर हमारे बच्चे हमसे इस वाक्य के आधार पर पान-मसाला खाने की जिद करें तो हम उन्हें क्या उत्तर दें, इस बारे में कंपनी हमें कुछ भी नहीं बताती और न ही सामान्य समझ रखने वाले ग्राहक से यह अपेक्षा की जा सकती है कि उसके जेहन में ऐसे प्रश्न उठेंगे।
खान-पान से लेकर पहनावे और सौंदर्य से लेकर सजावट, हर उत्पाद के लिए ऐसे विज्ञापन आज मौजूद हैं जो समाज के अंदर संकीर्ण और आत्मकेंद्रित मानसिकता पैदा करने में सक्षम हैं। भारत में ग्राहकों के हित में उपभोक्ता मामलों का मंत्रालय किसी भौतिक छलावे, जैसे खराब उत्पाद, टूटे-फूटे उत्पाद, कीमत ज्यादा लेना आदि के संबंध में कार्रवाई करने और उपभोक्ता हितों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन ऐसे छलावे के खिलाफ कार्रवाई के लिए उसके पास कोई तंत्र नहीं है, जो समाज में संकीर्ण, आत्मकेंद्रित, उपभोक्तावादी, विषमतापूर्ण सोच को बढ़ावा देने वाली नीतियों के माध्यम से अपने बाजार को विस्तृत करने वाली कंपनियां करती रहती हैं। इस विज्ञापन के कुचक्र का एक और पहलू भी है। जिस गरीबी, आय में असमानता, सामाजिक विषमता से मुक्ति के लिए बाजार को अपने ढंग से अनियंत्रित रूप में पनपने का मौका दिया गया, आज वही बाजार केवल अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए सामाजिक विषमता और व्यक्तिगत कुंठा को जन्म दे रहा है। जो लोग इन गैर-जरूरी उत्पादों को खरीदने में सक्षम होंगे, उनमें कहीं न कहीं एक खास वर्ग का होने की अनुभूति होने की संभावना बनती है और ऐसा न कर पाने वालों के भीतर कुंठा और हीन भावना का जन्म लेना स्वाभाविक है। उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय को महज भौतिक रूप से हुई क्षति के लिए कंपनियों पर कार्रवाई के सिद्धांत से आगे इस छिपी हुई मानसिकता के साथ किए जा रहे व्यापार का समाज पर पड़ रहे कुप्रभाव का आकलन करने के लिए तंत्र विकसित करना चाहिए और ऐसे विज्ञापनों के नियमन संबंधी प्रावधान करने की सशक्त पहल करनी चाहिए।