अगर शुद्ध पर्यटन की दृष्टि से देखा जाए तो धार्मिक स्थलों पर बनी इमारतों में कला और स्थापत्य की ऊंचाई कई बार विस्मित कर देती है। इस लिहाज से कोई छुट्टियां बिताने ओड़िशा जाए और जगन्नाथ मंदिर, कोणार्क का सूर्यमंदिर, भुवनेश्वर में लिंगराज मंदिर और शांतिस्तूप देखने के लोभ से खुद को बचा ले जाए, यह थोड़ा मुश्किल है। पुरी में करीब 1160 ई के आसपास बना जगन्नाथ मंदिर भारतीय स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। इससे करीब तीस किलोमीटर दूर स्थित कोणार्क सूर्यमंदिर पूरी दुनिया में मशहूर है। लिंगराज मंदिर बाकी दोनों मंदिरों से कहीं ज्यादा भव्य और विस्तारित है। हालांकि ये तीनों मंदिर प्राचीन हैं, लेकिन सिर्फ कोणार्क को यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र की ओर से विश्व धरोहर घोषित किया गया है। इसकी देखरेख भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग करता है।

इन तीनों इमारतों को ‘कलिंग स्थापत्य’ कला का नमूना माना जाता है। इन पर बौद्ध स्थापत्य कला का प्रभाव है। पुरातात्त्विक तारीखों से ऐसा लगता है कि इन इमारतों का निर्माण, बौद्ध और सनातन धर्म के बीच तीखे संघर्ष के काल में हुआ होगा। जगन्नाथ मंदिर वैष्णव और लिंगराज शैव संप्रदाय से संबंधित है। कोणार्क के सूर्यमंदिर को वैष्णव संप्रदाय से ही जुड़ा माना जाता है। भुवनेश्वर में अशोक के समय का शिला-लेख है, जिसमें उनके राज्य में जीव-हत्या को प्रतिबंधित करने का जिक्र है। इन प्राचीन जगहों का भ्रमण इतिहास से होकर गुजरने जैसा अहसास देने वाला होता है।

लेकिन यह इतिहास यात्रा आपको ठिठक कर सोचने पर मजबूर भी करती है। उस ऐतिहासिक द्वंद्व से साक्षात्कार कराती है, जिसकी परिणति आज का हमारा समाज है। पुरी के मंदिर के प्रवेश द्वार पर लिखा है- ‘ओन्ली हिंदू!’ यहां सिर्फ हिंदू प्रवेश कर सकते हैं। कभी यहां कबीर और नानक तक को अंदर जाने से रोक दिया गया; भेदभाव के खिलाफ गांधी ने यहां धरना दिया; रवींद्रनाथ ठाकुर और भीमराव आंबेडकर को भी अनुमति नहीं मिली थी। यहां तक कि भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन को भी अंदर नहीं जाने दिया गया। इस मसले पर दावा है कि अगर कोई गैर हिंदू छद्म वेष में दाखिल भी हो जाए तो जगन्नाथ खुद ही बता देते हैं। बहुत संघर्ष के बाद यहां दलितों का प्रवेश मुमकिन हो पाया है। यह कोणार्क के सूर्यमंदिर से भी करीब सौ साल पुराना, उतना ही अहम है और समूची मानव सभ्यता की धरोहर है। इस पर सभी का साझा हक है।

लिंगराज मंदिर जगन्नाथ मंदिर से भी पुराना है। हालांकि इसके अंदर शिवलिंग स्थापित है, लेकिन इस पर वैष्णव मत का भी प्रभाव है। कुछ इतिहासविदों का मानना है कि इसे सातवीं शताब्दी के मध्य से लेकर ग्यारहवीं सदी के बीच बनाया गया और इस दौरान वैष्णव मत काफी प्रभावी हो गया था। लिंगराज मंदिर के साथ एक हजार साल का इतिहास जुड़ा हुआ है। लेकिन मुख्य द्वार पर वर्तमान की मुहर लगी हुई है। दरवाजे पर देवी-देवताओं की तस्वीरें हैं। मंदिर की देखरेख मंदिर न्यास और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग मिल कर करते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि आस्था के क्रियाकलापों से इस ऐतिहासिक इमारत को क्षति भी पहुंच सकती है। अंदर की गंदगी और इमारत की हालत देख लगता है कि हमें आज भी अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजना नहीं आया।

इन दोनों मंदिरों से उलट कोणार्क धर्माधिकारियों से मुक्त है। शायद इसकी वजह भी धर्म ही हो, क्योंकि इसकी दीवारों पर नृत्य, संगीत, प्रेम और काम की आकृतियां इसे उस खांचे में फिट नहीं होने देतीं। इसके बावजूद मान्यताप्राप्त गाइड तक पूर्व-धारणाओं और अफवाहों से काम चलाते हैं। सिंह को दुर्गा की सवारी बताते हैं और हाथी को हिंदुओं का पूज्य। सूर्यमंदिर से सटा एक छोटा-सा नवग्रह मंदिर भी है। लोगों की धारणा है कि इसमें रखी मूर्तियों को सूर्यमंदिर से निकाल कर यहां लाया गया था। लेकिन इस बात में सच्चाई नहीं जान पड़ती। सूर्यमंदिर से उलट, ये नौ मूर्तियां साफ-सुथरी हैं और बिल्कुल भी क्षतिग्रस्त नहीं हैं। मुझे लगा अगर इतिहास का इसी तरह पुनर्पाठ चला तो यह भी एक पवित्र मंदिर में तब्दील हो जाएगा और लोग यहां शीष झुकाने आया करेंगे।

दरअसल, इतिहास के गर्भ से चलता आया संघर्ष वर्तमान में जवान हो रहा है। हिमाचल के कल्पा में एक पुराने बौद्ध मंदिर की दीवारों पर हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें देख कोई भी दंग हो सकता है। एक तरह से इतिहास का यह पुनर्लेखन है और ऐतिहासिक इमारतें साधन, इनको बचाने के लिए सरकार को ट्रस्ट बनाने से आगे बढ़ कर भी कुछ करना चाहिए। इन्हें समूची मानव सभ्यता की धरोहर घोषित करना चाहिए। अगर ये इमारतें धरोहर घोषित हो जाएं तो विवाद बचेगा ही नहीं कि कौन प्रवेश करे कौन नहीं!