कई बार खास संदर्भों में किसी शब्द का प्रयोग उस शब्द और संदर्भ, दोनों को बहस के दायरे में ला खड़ा करता है। विशेष रूप से ऐसी स्थिति में, जब उस शब्द के सामान्य अर्थ के बारे में साधारण ज्ञान रखने वाले भी जानते-समझते हैं। कुछ समय से चल पड़ा ‘दिव्यांग’ भी एक ऐसा ही शब्द है। हाल में ‘तैमूर’ नाम जिस ऐतिहासिक संदर्भ की वजह से विवादों के घेरे में रहा, उसे कौन दिव्यांग बोलना चाहेगा? इतिहास का ज्ञान न होना या तोड़ा-मरोड़ा हुआ इतिहास का ज्ञान होना भी अधूरे ज्ञान की श्रेणी में आता है। लेकिन उन्हें भी हम इतिहास के ‘दिव्यांग’ नहीं कह सकते। दिव्यांग के मायने दिव्य अंग से हैं, यानी ऐसा अंग जिसे दिव्य या चमत्कारिक कहा जा सके। सामान्य तौर पर दिव्यांग शब्द के अर्थ देवी-देवताओं से जुड़े हैं जो वरदान स्वरूप माने गए हैं। यों मनुष्यों में ‘दिव्यांग’ का होना महज एक कल्पना भर है, जो महज देवताओं से तुलना या साम्यता के लिए गढ़ा गया शब्द है।
अब तक शरीर के किसी अंग से बाधित व्यक्ति को विकलांग कहा जाता रहा है। विकलांगता जन्मना और विपदा या दुर्घटना से उत्पन्न हो सकती है, जिसमें किसी का कोई दोष नहीं होता। इसलिए सरकार उन्हें विशेष सुविधा और अवसर देने के लिए प्रतिबद्ध होती है। समाज को भी अपने स्तर पर असहाय जनों के लिए जन-प्रयास से सहायता करते रहना चाहिए। देखा जाए तो विकलांग व्यक्ति सामान्य लोगों की तुलना में अधिक जीवट वाले और आत्मविश्वासी होते हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि आत्महत्या या अवसाद के मामलों में विकलांगता का कारण देखने-सुनने में शायद ही कभी आता है।
यह बात स्वयंसिद्ध है कि विकलांग लोग अपने जीवन से टकराने और उस पर जीत हासिल करने की अदम्य इच्छाशक्ति से भरे हुए होते हैं। यही खास गुण इन्हें उपहार में मिला होता है, जो बेशक उन्हें आमजन से ऊपर स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। खास बात यह है कि एक सामान्य व्यक्ति हमेशा दुखी या असंतुष्ट मिलता है, लेकिन उसकी तुलना में विकलांग व्यक्ति शायद ही कभी अपनी अक्षमता या कमतरी को जाहिर करते हैं। जबकि उन्हें हरदम अपने साथ किए गए भेदभाव के प्रति दुनिया से नाराज होकर बैठने का पूरा हक है। लेकिन वे ऐसा नहीं करते। इसके उलट हम प्रतिदिन अपनी कमियों और अभावों या दुखों के लिए ईश्वर या दुनिया को कोसते या उससे नाराज होते रहते हैं। इसलिए जब भी हम अपने इर्द-गिर्द किसी विकलांग व्यक्ति को देखें तो हमें सदैव उसके सुखी और स्वस्थ जीवन के लिए कामना करनी चाहिए और खुद के लिए कृतज्ञ अनुभव करना चाहिए। विकलांग जन की जिजीविषा और इच्छाशक्ति हमारे लिए प्रेरणा है। वे हमें आभास कराते हैं कि हमें संसार में किन खूबियों के साथ भेजा गया है। यह बात याद रखने के लिए एक संदेश भी है, ताकि हम शांति, प्रेम, भाईचारे से जीवनयापन करें, न कि दूसरों पर जीत हासिल करने की कोशिश में बुरा रास्ता अपनाएं। ध्यान रहे कि विकलांग जन ‘दिव्य अंग’ से लैस होकर नहीं, बल्कि विशेष इच्छाशक्ति लेकर इस दुनिया में हमारे सामने या आसपास होते हैं। इसलिए उन्हें देखते ही उनकी इच्छाशक्ति को याद करके न सिर्फ सम्मान का भाव पैदा होता है, बल्कि उससे हमें भी अपने जीवन को सरलता से जीने की प्रेरणा मिल सकती है।
इस बीच विकलांग लोगों के कई संगठनों ने भी ‘दिव्यांग’ शब्द को स्वीकार करने के प्रति अनिच्छा जाहिर की। उन्हें लगता है कि इस शब्द से सिर्फ भ्रम उत्पन्न होगा, न कि समाधान। उनकी शंका को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि हमारा समाज विकलांगता को किसी ‘दिव्य’ उपहार के रूप में स्वीकार करता है, ऐसा नहीं लगता। समाज के ऊपरी तबके और शासकीय पत्राचार की भाषा और मंच-गोष्ठियों में दिव्यांग शब्द चाहे जगह बना ले, लेकिन सामान्य बोलचाल या संबोधन में किसी विकलांग को दिव्यांग बोलना इतना सहज और आसान नहीं हैं। इस तरह का संबोधन संभव है कि किसी को तंज का अनुभव करा दे। इसलिए हिंदी के मूर्धन्य विद्वानों और भाषा-शास्त्रियों को विचार-मंथन कर दिव्यांग की जगह अन्य उपयुक्त शब्द खोजना चाहिए।
मेरे खयाल में दिव्यांग की जगह सहचर शब्द ज्यादा उपयुक्त लगता है, क्योंकि इससे साथ रहने और साथ देने का भाव उत्पन्न होता है। ऐसे संबोधन भी ढूंढ़े जा सकते हैं, जिनमें साथी, सहचर भाव के अलावा दृढ़ता, इच्छा, हौसला, संकल्प आदि खूबियां जुड़ी हों, या और भी शब्द हो सकते हैं, जिनसे इच्छाशक्ति और अदम्य उत्साह का संदेश तथा भाव जुड़ा हो! हमें यह याद रखना चाहिए कि संबोधन महज एक औपचारिकता नहीं होता, बल्कि हमारी संवेदनशीलता का परिचायक होता है, जिसके माध्यम से अंतर्मन संवेदित होकर सार्थक दिशा में उद्वेलित होता है।