दो बजते ही स्कूल से छूटे ढेर सारे बच्चों की खिली हुई आवाज से मन ऐसे प्रसन्न हो उठता है जैसे शाम को घर लौटती चिड़िया का चहकते, शोर करते झुंड को देखना। मैं घर के एकदम पास स्थित सरकारी स्कूल की बात कर रहा हूं। चिल्ला गांव का स्कूल। लगभग तीन हजार बच्चे पॉश कॉलोनियों के बीचों-बीच। लेकिन इसमें इन सोसाइटियों का एक भी बच्चा पढ़ने नहीं जाता। इसके प्रधानाध्यापक ने एक दिन मुझे खुद बताया था कि ‘बीस-तीस हजार की आबादी वाली सोसाइटियों का एक भी बच्चा, कभी भी इस सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ा।’ असमानता के ऐेसे द्वीप हर शहर में बढ़ रहे हैं। उनके लिए अलग और आभिजात्य बेहद महंगे स्कूल हैं। इनमें कई स्कूल किसी कंस्ट्रक्शन कंपनी या बिल्डर के हैं। दरअसल, ऐसे सभी निजी स्कूल ऐसे ही मालिकों के हैं। पुराने धंधों की बदौलत एक नया धंधा स्कूल का, जो अब पुराने सारे धंधों से ज्यादा चमकार लिए है।

खैर, मेरे अंदर सरकारी स्कूल से छूटे बच्चों की खिलखिलाहट हिलोरे ले रही थी। पूरी सड़क भरी हुई। बच्चे-बच्चियां दोनों। पैदल चलता अद्भुत रेला। कुछ बस स्टैंड की तरफ बढ़ रहे थे तो कुछ चिल्ला गांव की तरफ। जब से मेट्रो ट्रेन आई है, पास के मुहल्ले अशोक नगर और नोएडा तक के बच्चे इस सरकारी स्कूल में लगातार बढ़ रहे हैं। यमुना के खादर में बसे उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों का एकमात्र सहारा भी है यह सरकारी स्कूल। जिस स्कूल को यहां आसपास की संभ्रांत कॉलोनियों के बाशिंदे गंदा और बेकार मानते हैं, चिल्ला गांव खादर के बच्चों के लिए इस स्कूल का प्रांगण बहुत महत्त्व रखता है। स्कूल ही वह जगह है, जहां वे खेल पाते हैं। चीजों की कीमत वे जानते हैं, जिन्हें मिली न हो। भूख हो या नींद या जीवन की दूसरी सुविधाएं। अभाव ही सौंदर्य भरता है।

कभी-कभी इन हजारों बच्चों की खिलखिलाहट को नजदीक से सुनने का मन करता है। सरकारी स्कूल के गेट पर न एक भी कार, न स्कूटर, न स्कूली बस। और तो और, नन्हे बच्चों को लेने आने वाले भी नहीं। कौन आएगा यहां! मां किसी अमीर के घर काम कर रही होगी और पिता कहीं मजदूरी कर रहे होंगे। इन्हें उम्मीद भी नहीं। इनके पैरों ने चलना खुद सीखा है। इसके बरक्स एक निजी स्कूल है वहां से थोड़ी दूरी पर। उसका नाम हिंदी में है, लेकिन उसके अंग्रेजी नाम से ही सभी जानते हैं। स्कूल प्रबंधन भी नहीं चाहता कि वह स्कूल हिंदी नाम से पहचाना जाए। हिंदी नाम से स्कूल का ‘शेयर भाव’ नीचे आ जाएगा। फिर धंधा कैसे चमकेगा! महंगी फीस, किताबों, स्कूल ड्रेस, बस के लिए अलग से पैसे और फिर रुतबा। इसी रुतबे का खमियाजा पड़ोस की सार्वजनिक सड़क को भुगतना पड़ता है।

सुबह स्कूल खुलते और बंद होते, दोनों वक्त उस निजी स्कूल की विशाल पीली बसें आड़ी-तिरछी प्रवेश करती, लौटती हुई जितना शोर मचाती हैं उससे वहां के पॉश बाशिंदे अपने-अपने ड्राइंगरूम में बैठे कुढ़ते हैं, लेकिन चुप रहते हैं। कारण बस यही है कि या तो उनके बच्चों पर इस स्कूल ने उपकार किया है, या फिर निकट भविष्य में उन्हें दाखिले के लिए दर-दर भटकना पड़ सकता है। इन अपार्टमेंटों में प्रसिद्ध पत्रकार, बुद्धिजीवी, लेखक और फिल्मकार भी हैं जो अपने स्वार्थ और सुविधा के लिए किसी की भी र्इंट से र्इंट बजा देंगे। लेकिन इन स्कूलों की इतनी ऊंची फीस, शोर और शोषण के खिलाफ कभी मुंह नहीं खोल सकते। पड़ोस की सड़कें और फुटपाथ इन स्कूलों से त्रस्त हैं। किनारे बैठे सब्जी-ठेले वालों को भी स्कूल में होने वाले सत्संग के दिन भगा दिया जाता है!

जहां सरकारी स्कूल के गेट पर कभी एक भी कार या स्कूटर नहीं होता, इन निजी स्कूलों के गेट पर सैकड़ों कारें लगी होती हैं। एक से एक महंगे मॉडल की बड़ी कारें। इसीलिए यहां बच्चों के खिलखिलाने की आवाज के बजाय कार के हॉर्न सुनाई देते हैं। छुट्टी होने के पहले ही इनके अभिभावक अपनी कार में एसी चालू करके ऐसी जगह पर लगा कर रखते हैं कि उनके बच्चे स्कूल के दरवाजे से निकलते ही उसमें आ कूदें। इन कारों और बसों से थोड़ी देर के लिए वहां की पूरी सड़क ठहर जाती है। कई बार एक बच्चे को ले जाने के लिए दो लोग आते हैं। बावजूद इसके इन हृष्ट-पुष्ट दिखते बच्चों के चेहरों पर उदासी और थकान क्यों पसरी होती है! सरकारी स्कूल के बच्चे इन्हीं कारों के बीच किसी तरह बचते हुए रास्ता तलाशते गुजरते हैं और मुस्करा भी लेते हैं। वाकई सड़क अमीरों की, स्कूल और देश भी। गरीबों का तो बस संविधान है, जिसकी प्रस्तावना में समाजवाद, समानता जैसे कुछ शब्द लिखे हुए हैं। पता नहीं यह सपना कब पूरा होगा!