समाज के दो किरदारों के तौर पर किसी स्त्री और पुरुष की कहानी जब भी सामने आती है तो उसमें नायक आमतौर पर पुरुष होता है। हम सबने भी इस मनोविज्ञान के साथ ऐसा सामंजस्य बिठा लिया है कि कहानी के दो पात्रों में से अपने आप ही बतौर नायक पुरुष को स्वीकार कर लेते हैं और उसमें स्त्री की भूमिका को या तो कम करके देखते हैं या फिर याद रखना भी जरूरी नहीं समझते। लेकिन अब समाज तेजी से बदल रहा है और उसके साथ बदल रही है कहानियों में पात्रों की भूमिका भी। इसे हम सिनेमा के परदे के जरिए समझ सकते हैं, जिसके बारे में यह कहा जा सकता है कि परदे पर वही आता है जो समाज में घट रहा होता है।
इस लिहाज से देखें तो हिंदी सिनेमा का रंग आज बदल रहा है और यह बॉलीवुड और उसके सितारों को एक नए आयाम की ओर ले जा रहा है। आज निर्देशकों, अभिनेता-अभिनेत्रियों की नई पीढ़ी, फिल्मों का बजट, विषय… लगभग सभी कुछ बदल-सा गया है। इस बदलते रंग ने कुछ चीजों को अपनाया है तो कुछ को छोड़ा भी है। कुछ युवा निर्देशकों ने कई तरह की फिल्में दर्शकों के बीच शोध के तौर पर रखीं और उनका शोध कामयाब रहा है। आज किसी फिल्म को देख कर यह कहना कि ‘पहले जैसी फिल्मों वाली बात अब नहीं है’, नई पीढ़ी के निर्देशकों, कलाकारों के साथ नाइंसाफी होगी। इस बदलते रंग ने परदे पर उतरी कहानियों में महिलाओं के किरदार और उनके अभिनय को भी बदला है।
हालांकि हिंदी सिनेमा में महिला किरदार हमेशा से अहम रहा है, फिर चाहे प्रेम के किस्से हों या फिर मां के दुख का बदला लेने पर आधारित कहानियां। कहीं न कहीं मूल में महिला का जुड़ाव फिल्म की कहानी से अवश्य रहा है। समांतर सिनेमा को छोड़ दें तो एक दशक पहले तक आमतौर पर यही देखने मिल रहा था कि मूल कहानी में तो महिला थी, लेकिन फिल्म में वह धुरी या कहानी की जान नहीं थी। यानी पुरुष किरदार ही केंद्र में और बेहद प्रबल होते थे। नायिका की भूमिका में भी महिलाओं को या तो अबला, कमजोर रोते-धोते दिखाया जा रहा था या फिर प्रेम के गीत गाते हुए बगीचों और पेड़ों के इर्द-गिर्द। हालांकि ऐसा आज भी है, मगर तस्वीर बदल रही है।
लेकिन इस बदलाव में एक अहम पहलू अब भी ठहरा हुआ है। कहानी में किरदार प्रमुख हो गया, अभिनय के स्तर पर नायिका सबसे बेहतर रही, कोई फिल्म भी नायिका के बूते चली, लेकिन उसके मेहनताने में आज भी कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। पहले भी हिंदी सिनेमा ने बेहतरीन अभिनेता दिए हैं, लेकिन बेहतरीन नायिकाओं की फेहरिस्त भी लंबी है। फिर भी महिलाओं को केंद्र में रख कर परदे पर आने वाली कहानियां गिनती की रहीं।
अब हिंदी सिनेमा में कथा-पटकथा नए रंग के साथ दर्शकों के बीच पहुंच रही है। इस बदलाव के बयार में महिला किरदारों को भी अहमियत मिल रही है। आज यह जरूरी नहीं कि फिल्मों में नायक ही फिल्मों को हिट कराने का ‘फैक्टर’ हो। नायिकाएं भी अपनी सशक्त भूमिका से न सिर्फ फिल्म हिट करा रहीं हैं, बल्कि परदे पर बेहतरीन अभिनय के लिए सुर्खिंयां बटोर रहीं हैं। पिछले कुछ सालों के दौरान ‘डर्टी पिक्चर’, ‘गुलाबी गैंग’, ‘फैशन’, ‘कहानी’, ‘क्वीन’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘हाइवे’, ‘पीकू’ और ऐसी कई फिल्में हैं, जिनमें पुरुष किरदार या नायकों के होते हुए भी चर्चा सिर्फ नायिकाओं के दमदार अभिनय की हुई और फिल्में हिट हुर्इं।
यह हिंदी सिनेमा का बदलता रंग है जो अब ज्यादा सुर्ख होता दिख रहा है। इस बंदिश से सिनेमा अब छूट रहा है कि फिल्मों में नायकत्व अब नायक ही दे पाएंगे। इसका पूरा श्रेय युवा पुरुष और महिला निर्देशकों और युवा कलाकारों को जाता है। पहले हिंदी सिनेमा की तस्वीर में महिला थी, लेकिन कहानी या पटकथा का दमदार अंश नहीं थी। लेकिन आज कहानियां बाकायदा महिला किरदारों को ध्यान में रख कर लिखी जा रही हैं। लेखन की शैली भी बदल रही है और समाज में महिलाओं की बदलती स्थिति के साथ सहज बदलाव भी स्वीकार किया जा रहा है। कहानी में अब नायिकाओं को अभिनय के लिए दमदार किरदार दिए जा रहे। नायिकाओं को अपने अभिनय में प्रयोग करने की भी आजादी मिल रही है। बल्कि आजकल कुछ अभिनेत्रियां किरदार की चुनौती को स्वीकार करते हुए फिल्म को हिट कराने की जिम्मेदारी ले रही हैं। पहले और आज के सिनेमा को तुलनात्मक दृष्टि से न भी देखे तो हिंदी सिनेमा कई नई चीजों को अपना रहा है, बदल रहा है। बदलाव की इसी कड़ी में स्त्री को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानियों का परदे पर उतरना भी है।
