हाल ही में एक रिश्तेदार द्वारा भेजे गए शादी के कार्ड पर मेरी नजर पड़ी। उस पर कार्यक्रम की जानकारी के साथ यह लिखा हुआ था- ‘छोटों को प्यार और बड़ों को सम्मान।’ यह वाक्य पढ़ कर मेरे मन में प्रश्न आया कि छोटों को प्यार ही क्यों, सम्मान क्यों नहीं! दरअसल, बचपन से लेकर अब तक हम यही सुनते आए हैं कि छोटे बच्चों को प्यार देना चाहिए, बच्चे मन के सच्चे होते हैं, वे भोले और थोड़े नासमझ होते हैं! विद्यालय से भी अक्सर ऐसी शिकायतें आती रहती हैं कि बच्चे अपना काम जिम्मेदारी से नहीं कर रहे हैं, खेलने में ज्यादा मन लगाते हैं आदि। मां-बाप के अलावा विद्यालय के शिक्षक और आसपास के लोग भी बस उसी दिन का इंतजार करते हैं कि कब बच्चे बड़े होंगे और जिम्मेदार बनेंगे। प्रश्न उठता है कि क्या सच में बच्चे जिम्मेदार नहीं होते हैं? या हम उन्हें जिम्मेदार होने का मौका नहीं देते हैं या हमें बच्चों पर भरोसा नहीं है या फिर हमारी समझ और अनुभव हमें बच्चों पर भरोसा करने से रोकते हैं?
मेरे दफ्तर में काम करने वाले एक सहकर्मी की तीन साल की बेटी है। सहकर्मी अक्सर अपनी बेटी को खाना खिलाने के लिए लालच देते हुए कहते हैं- ‘बेटा, आप खाना खा लो, फिर मैं आपको लैपटॉप पर कार्टून दिखाऊंगा।’ सहकर्मी लैपटॉप पर कार्टून देखने का लालच तब देते हैं, जब उनकी बेटी खाना खाने के लिए मना करती है। एक दिन उनकी बेटी ने उनसे अपने साथ खेलने के लिए कहा। लेकिन काम में व्यस्त होने के कारण उन्होंने साथ खेलने से मना कर दिया। तब उनकी बेटी ने कहा- ‘पापा, आप मेरे साथ खेल लो, फिर मैं आपको लैपटॉप पर फिल्म दिखाऊंगी।’ अपनी बेटी की यह बात सुन कर सहकर्मी चकित रह गए, क्योंकि उन्हें अपनी बेटी से इस तरह के व्यवहार की अपेक्षा नहीं थी।
अमेरिका के जाने-माने शिक्षाशास्त्री गैरथ बी मैथ्यूज के अनुसार आमतौर पर छोटे बच्चे अक्सर इस तरह के सवाल करते हैं, जिन्हें सुन कर बड़े-बुजुर्ग भी चकित रह जाते हैं। लेकिन इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है, क्योंकि बड़ों की तरह बच्चों में भी गंभीर सवाल करने की क्षमता होती है। इसलिए मां-बाप चाहें तो बच्चों से गंभीर विषयों पर भी चर्चा कर सकते हैं। यहां तक कि जिनको दार्शनिक विषय समझा जाता है, उन पर भी बच्चों से बातचीत संभव है। रोजाना की जिंदगी में हमें ऐसे अनेक ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जो बच्चों की सोचने की गंभीरता को दर्शाते हैं। लेकिन हम उन पर बच्चा समझ कर ध्यान नहीं देते हैं। हम देखते हैं कि कई बार गली-मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेलते हैं तो उनके पास न तो वैसा मैदान होता है, न उतने खिलाड़ी, न उतनी जगह और न वैसे बल्ले और गेंद। फिर भी वे अपनी जरूरत के मुताबिक अपने नियम तुरंत बना लेते हैं और सभी उन नियमों का पालन भी करते हैं।
गैरथ के मुताबिक, ‘आमतौर पर जिन समस्याओं से जुड़े प्रश्नों का उत्तर खोजना वयस्कों को मुश्किल लगता है, उन पर लोग बच्चों से बात नहीं करना चाहते हैं। इसके लिए बच्चों को अक्षम माना जाता है। अधिकतर लोग मानते हैं कि जो समस्याएं वयस्कों के लिए पेचीदा और दिक्कत पैदा करने वाली हैं, उन पर छोटे बच्चों से बातचीत संभव नहीं है।’ अनेक बाल मनोविज्ञानी और शिक्षाशास्त्री भी साबित कर चुके हैं कि बच्चे किसी भी समस्या पर अपने तर्कों के माध्यम से विचार रखते हैं और उनके ये विचार बहुत ही रोचक होते हैं। हर मां-बाप का सपना होता है कि वे अपने बच्चे को सुरक्षित, शिक्षित और सुनहरा भविष्य दें और बच्चे के जन्म के साथ ही इस सपने की शुरुआत हो जाती है।
लेकिन अपने इस सपने को पूरा करने के लिए मां-बाप अपनी उम्मीदों के अनुसार बच्चों को ढालना चाहते हैं और अपनी अपेक्षाएं उन पर थोपते हैं। फिर उन अपेक्षाओं के अनुसार ही बच्चों की जिंदगी ढल जाती है। जैसे कितनी देर तक खेलना है, कितनी देर तक टीवी देखना है और फिर कितनी देर तक पढ़ाई करनी है आदि। लेकिन बच्चों के संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमें अपनी अपेक्षाएं बच्चों पर नहीं थोपनी चाहिए, बल्कि बच्चों से जुड़े हर विषय पर उनसे बातचीत करके उनका नजरिया जानना चाहिए और फिर उसके अनुसार ही हमें तय करना चाहिए कि बच्चे क्या करना चाहते हैं, कब खेलना चाहते हैं, कब पढ़ना चाहते हैं, क्या पढ़ना चाहते हैं और पढ़-लिख कर क्या बनना चाहते है। हम बच्चों के सुरक्षा वाले पहलू को ध्यान में रखते हुए उन्हें उत्प्रेरित और उत्साहित कर सकते हैं, सहानुभूति, साधन और अवसर उपलब्ध करा सकते हैं। लेकिन हमें बच्चों पर अपने नियम, कायदे-कानून और नियंत्रण जबर्दस्ती न थोपने की सावधानी बरतनी चाहिए।