राम प्रकाश कुशवाहा
मनुष्य को छोड़ कर दूसरा कोई भी प्राणी काम-चिंतन नहीं करता। काम-व्यवहार के मामले में पशु-जगत से मानव-जगत की तुलना करने पर जो अंतर सामने आता है, उसमें मनुष्य द्वारा ज्ञान, बुद्धि और स्मृति के स्तर पर किया जाने वाला व्यवहार ही प्रमुख है। मनुष्य ने इसे सभ्यतागत और संस्थागत विस्तार दिया है। विवाह-संस्था से लेकर उसके सामाजिक व्यवहार में लिंग-भेद की चेतना की बहुआयामी अभिव्यक्तियां उसके काम-व्यवहार को विशेष बनाती हैं, क्योंकि मनुष्य में ज्ञान की सारी अभियांत्रिकी उसके भाषा-तंत्र पर आधारित है। इसलिए स्वाभाविक है कि उसकी कामुक बुद्धि का भी प्रमुख आधार भाषा-आधारित ज्ञान-तंत्र है।
हर भाषा में कामोत्तेजक श्लील-अश्लील शब्द मिलते हैं। संवेदनात्मक साहचर्य के कारण ये शब्द पुरुष और स्त्री में विपरीत लिंग के साथी की प्रत्यक्ष दैहिक उपस्थिति के बिना भी उसकी कल्पना द्वारा उसके मन-मस्तिष्क को संवेदित और उसकी अंत:स्रावी ग्रंथियों को भी उत्तेजित करने में समर्थ हैं। अंत:स्रावी ग्रंथियों का स्विच मनोरसायनों में है। मस्तिष्क और तंत्रिका-तंत्र का एक बड़ा हिस्सा कामजनित तनावों और उत्तेजनात्मक जैविक व्यस्तताओं को ही समझाने और संभालने में लग जाता है। इसलिए स्त्री-पुरुष के समानतावादी व्यवहार पर आधारित समाज की रचना के लिए इस सारे पर्यावरण को बदलना होगा।
मनुष्य के लैंगिक अपराधों को देखते हुए आश्चर्य होता है कि पशु-जगत अपने विपरीत लिंगी साथी के प्रति काम-व्यवहार में कितना शिष्ट और सभ्य है। वह कभी लैंगिक दुर्व्यवहार या बलात्कार नहीं करता है। अपने समागम में भी वह जैविक उपकारक की भूमिका में होता है। ऐसा वह प्रकृति प्रदत्त सहज-वृत्ति के द्वारा करता है। वह जो भी करता है सहमति के साथ। मनुष्य का लैंगिक व्यवहार उसकी जैविक प्रेरणा से अधिक उसके बौद्धिक-मानसिक पर्यावरण से प्रभावित होता है। पहले भारतीय गांवों में अपने गांव की युवतियों को बहन मानने की सांस्कृतिक व्यवस्था थी। युवतियां बहन-भाई के रिश्ते के विस्तार के कारण सुरक्षित रहती थीं। कुछ धार्मिक अवधारणाएं भी स्त्री शरीर को देवी की प्रतिनिधि के रूप में देखने की दृष्टि देती थीं। यह प्रभाव फिल्मी नायक-नायिकाओं के अश्लील प्रभाव से अलग एक पवित्र भाव-लोक रचता था।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो इसे प्रत्यक्षीकरण की सांस्कृतिक अभियांत्रिकी कहा जा सकता है। यह पद्धति स्त्री शरीर को देखने की दृष्टि और मानसिक व्याख्या बदलती है। आधुनिक भौतिकवाद और बाजारवाद ने उससे यह दृष्टि छीनी है। वर्जनाओं की पूरी सांस्कृतिक अभियांत्रिकी निरस्त कर दी गई है। यह जरूरी नहीं है कि संस्कृति को केवल धार्मिकता के अंतर्गत ही देखा जाए। पारिवारिक रिश्तों को विस्तार देते हुए भी समाज की बेहतर संस्कृति रची जा सकती है। दरअसल, अधिकांश यौन-नैतिकता का निर्माण सामंती युग में हुआ है। उसमें यौन-शुचिता और शुद्धता की मान्यताएं भी हैं। एक समय था जब भोजन के बर्तन छू जाने मात्र से धर्म बदल जाते थे। यौन शुचिता की अवधारणा भी उसी दौर की है।
स्त्री को सिर्फ देह के रूप में देखने से उसके व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन नहीं हो सकता। समाज को यह मानना सीखना होगा कि अपने साथ हुए यौन-अपराध की शिकार होने की स्थिति में कोई स्त्री अपनी इच्छा या भावना से उसमें शामिल नहीं है। ऐसी स्त्री यौन-अपराधी के प्रति अपनी घृणा में भी बची हुई हो सकती है। अगर अपराधी कोई एड्स रोगी नहीं है, तो शिकार होने के बाद भी कोई स्त्री अपने मानसिक सौंदर्य और समूचे व्यक्तित्व के साथ होती है। हर स्त्री एक विशिष्ट जैविक गुणवत्ता का बीज भी है। इस तरह यौन-अपराधों की शिकार स्त्री के शरीर का परंपरागत अवमूल्यन और शुचितावाद एक अंधविश्वासपूर्ण पूर्वग्रह के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस मध्ययुगीन सोच से समाज को बाहर निकालने की जरूरत है।
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