जयंत जिज्ञासु
कुछ लोग अपने जेहन में अपनी जाति भी लिए चलते हैं। शैक्षणिक संस्थानों में ऐसे गुटों की पहचान बड़ी आसानी से की जा सकती है। वामपंथ से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं, मगर खुद को कॉमरेड कहलाना पसंद करते हैं। जिसने ‘पूस की रात’ कभी देखी या जी ही नहीं, वह हलकू का दर्द भला क्या जाने! अब बेवजह कुछ खास जातियों को कोसने से अगर समरस, सौहार्दपूर्ण और समतामूलक समाज की स्थापना होनी होती, तो कब की हो चुकी होती।
उसी तरह दलितों के उभार के प्रति एक तरह की हेय दृष्टि, आदिवासियों के उन्नयन के प्रति उपेक्षा-भाव और पिछड़ों की उन्नति-तरक्की को संदेहास्पद ढंग से देखते हुए खारिज करने की मनोवृत्ति से अगर आप चाहते हैं कि राष्ट्रधर्म का निर्वाह हो जाएगा, आरक्षण की जरूरत समाप्त हो जाएगी, तो आप लिख लीजिए कि इस मानसिकता के साथ इस देश से आप कयामत तक आरक्षण खत्म नहीं कर पाएंगे।
कुछ मित्र कहते हैं कि ‘मेरिट की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए’। किस योग्यता की बात की जाती है? प्रतिभा की इतनी ही कद्र थी, तो अंगरेजों को क्यों भगाया? वे तो हमसे कहीं ज्यादा प्रतिभावान थे और शायद ईमानदारी में भी कई स्तर पर हमसे आगे। मसला काबिलियत का नहीं, नुमाइंदगी का है। ये वे लोग हैं, हजारों सालों से जिनके पेट पर ही नहीं, दिमाग पर भी लात मारी गई है।
समाज और मुल्क की मुख्यधारा से इन्हें जोड़ने के लिए विशेष अवसर प्रदान किया ही जाना चाहिए। समान और असमान के बीच समान स्पर्धा नहीं हो सकती। यहीं समग्रता में आरक्षण की वाजिब बहस की जरूरत महसूस होती है और सदियों से सताए गए लोगों को इसकी तलब लगती है। अब यह कहना कि ज्ञान पर शत-प्रतिशत आरक्षण हमें तो नहीं है, हमारे पुरखों ने किनके साथ क्या अन्याय किया, नहीं किया, उनसे हमारी क्या वाबस्तगी? यह एक तरह से इतिहास को नकारने की बीमारी है।
जब आप ये कहते हैं कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में आदिवासी को आमंत्रित कर उन्हें बस जलपान कराना चाहिए और उत्तीर्ण घोषित कर देना चाहिए, दलित को बस परीक्षा में बैठने मात्र से पास कर देना चाहिए, पिछड़ों के लिए दस में तीन प्रश्न के ही उत्तर देने अनिवार्य होने चाहिए और सामान्य वर्ग के लिए सभी दस प्रश्न अनिवार्य होने चाहिए; तो आप एक तरह से उन वर्गों के प्रति वैमनस्य का विष उगल रहे होते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि आरक्षण बस संस्थान में प्रवेश मात्र के लिए है, आगे अपनी योग्यता, श्रम, जुनून और अध्यवसाय से ही उपाधि और ख्याति मिलती है।
इन अनोखे-अलबेले प्राणियों की रचनाधर्मिता यहीं नहीं विराम लेती, बल्कि हिलोरें मारते हुए आइसीसी को भी अयाचित परामर्श देती है कि ओबीसी खिलाड़ी अगर चौका लगाए तो उसे छक्का माना जाना चाहिए, दलित खिलाड़ी नो-बॉल फेंके तो भी कोई अतिरिक्त रन विपक्षी टीम को नहीं मिलना चाहिए, आदिवासियों को दो बार आउट होने पर ही आउट करार दिया जाना चाहिए, वगैरह। ऐसे छिछले और उथले मजाक सिर्फ असीमित कुंठा के द्योतक हैं।
किसी जाति के संगठन में शामिल होने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं, लेकिन जब कहीं उपेक्षित, वंचित, शोषित-पीड़ितों के साथ गैरबराबरी और किसी तरह के भेदभाव की बात होगी तो मैं अपने विवेक और सामर्थ्य से उनके साथ खड़ा रहूंगा। मैं समझता हूं कि इस देश के आधुनिक इतिहास में अगर कोई सबसे हसीन, खूबसूरत और अहम घटना दर्ज हुई है, तो वह है संविधान का निर्माण और उसका अंगीकृत और प्रतिष्ठित होना। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के उस पवित्र संविधान की परिधि को सिकोड़ने के बजाय सुलझी और परिष्कृत सोच के साथ हम अंदर से उसे कितना फैलाव देते हैं, इसी में उसके चिरायु होने का राज है।
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