ममता व्यास
जब हम पहली बार मिले थे न, तब मुझे तुम दीवाने ही लगे थे और तुम्हें खोज कर मैं खुद को सयानी समझने लगी थी। तुमने उस दिन समझाया कि एक सयाने और एक दीवाने की आपस में कभी नहीं निभेगी और वे कभी एक दूजे को समझ नहीं सकेंगे। तुम्हारे मुताबिक एक दूजे को समझना प्रेम की अनिवार्य शर्त थी। अब मुझे तुम जैसा हो जाना था। सो, मैं दीवानी हो गई। फिर एक दिन तुमने कहा कि अपने दीवानेपन को छिपा लेना ही सयानापन है और तुम तेज कदमों से चलते हुए अंधेरे में छिप गए। तुम पल-पल सयाने होते गए। मैंने जब भी तुम्हें समझना चाहा या जान लिया, तुमने ऐन वक्त पर जानबूझ कर अपनी चाल बदल दी, रूप बदल लिया, रंग भी…। तुम दरअसल हमेशा प्रयोग करते रहे खुद के साथ, मेरे साथ, सबके साथ और प्रेम के साथ भी…। तुम्हें शांत जल में कंकड़ फेंकने का शगल था। कंकड़ फेंक कर लहरें बनाने और छिप कर लहरें गिनने का भी…।
तुमने समय के साथ अपनी इस अदा को हुनर में तब्दील कर लिया। तुम खुद को दुनिया का सबसे बड़ा दीवाना कहते नहीं थकते, लेकिन मुझे तुम अब सयाने लगने लगे थे। मैं जान गई थी कि अपने दीवानेपन को अपनी अदा से जो छिपा ले, वह सयाना है। और जो अपना सयानापन सरे-बाजार खो दे, वह दीवाना है।
तुम हमेशा कहते रहे कि मैं तुम्हारी तरह सयानी नहीं, इसलिए तुम्हें कभी समझ नहीं सकी। पर सुनो, किसी को समझने के लिए क्या सयाना होना जरूरी है? दीवाना होना नहीं? तुम इतने बिखरे हुए हो कि दुनिया की किसी भी स्त्री के हाथ तुम्हें समेट नहीं सकते। तुम्हारे दीवानेपन और सयानेपन के बीच बहुत महीन रेखा है। तुम अपनी मर्जी से जब चाहे तब इस रेखा को पार कर लेते हो। तुमने तो घोषणा ही कर दी थी कि मैं कभी भी तुम्हें समझ नहीं सकी और मेरी समझदारी बहुत छोटी है। इस उद्घोषणा के बाद देर तक मैं हंसती रही, अतीत की किताब के पन्ने उलटती रही… आखें भीगती रहीं और मेरे पैरों के नीचे एक नदी बन गई थी!
मुझे याद है, बरसों पहले तुम जब खारा समंदर बन गए थे तो मैं तुम्हें खोजते हुए आई थी और तुम्हें समझने के लिए, समंदर का किनारा बन गई। मैंने चखा था किनारों पर जमे तुम्हारे अवसाद के नमक को, जो तुम रोज रात अपनी आंखों से बहाते थे। तुम्हारे रुदन को मैंने अमावस की हर रात सुना था और जब एक दिन मैंने हाथ पकड़ कर तुम्हें खुद में डूबने से रोका तो तुमने बड़ी होशियारी से मेरा हाथ झटक दिया और बोले कि समंदर भी कभी डूबते हैं? और अलसुबह समंदर गायब हो गया… वहां खालिस रेत थी। मैं तुम्हारे सयानेपन पर हैरान थी। पहले समंदर, फिर रेगिस्तान और अब तुम्हें जंगल भाने लगे थे। तुम अब जंगल में छिप कर रहने लगे थे। तुमने अपने अवसादों अपराधबोध और उदासियों के सूखे पत्तों और लकड़ियों से अपने लिए एक झोपड़ी बना ली थी। तुमने उस जंगल में एक समाधि बनाई अपने दुखों की, उसे आंसुओं और वक्त की मिटटी से लीप कर, रोज अपनी यादों का हवन करने लगे।
तुम अब बेखबर थे, दुनिया से, मुझसे और खुद से भी…! तुमने जैसे ही अपनी यादों को जलाना शुरू किया, न जाने क्यों मेरी देह जलने लगी। देखते-देखते मेरी देह काले धुएं में बदल गई! मैंने तुम्हें पुकारा- ओ बेखबर, अपने दर्द को, प्रेम के दीवानेपन को यों इस तरह आग में नहीं जलाते… खुद को इस तरह खर्च नहीं करते… तुम्हारी जलाई आग से कोई भस्म होता है, क्या तुम्हें खबर है? तुम्हारे यों खर्च होने से कोई कंगाल हुआ जाता है, क्या तुम्हें इल्म है? यह कैसा सयानापन है? यह कैसा दीवानापन है?
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