अशोक कुमार

अपना फोटो निकालो और उसे निहारते रहो। अपना कद इतना बड़ा मानने लगो कि सामने का हर आदमी छोटा नजर आने लगे। किसी की बात बिना सुने केवल अपने ‘मन की बात’ कहते रहो! कल तक जो धमनियों में दौड़ रहा था, आज उसे पुराने कपड़े की तरह निकाल फेंको और मंद-मंद मुस्कान के साथ कहते रहो कि वे देश के लिए सोचते हैं। आजकल यह आत्ममुग्धता देखते ही बनती है। कहा जा रहा है कि देश के लिए सोचने वाले ये पहले प्रधानमंत्री हैं। मुझे नहीं पता कि देश के अन्य प्रधानमंत्री किसके लिए सोचते रहे होंगे। लेकिन वे चाहे जिसके लिए भी सोचते रहे हों, इसका बखान कभी खुद नहीं किया, जिससे देशवासी अब तक नहीं जान पाए कि उनकी मंशा क्या थी!

यों ऐसे आत्ममुग्ध प्रधानसेवक इससे पहले भी कोई हुए, मुझे ध्यान नहीं आता। बाद में होंगे, मैं कह नहीं सकता! अपनी कामयाबी का जश्न मनाते, कभी ड्रम बजाते, तो कभी बांसुरी, कभी चीन के राष्ट्रपति के साथ सेल्फी लेते तो कभी बराक ओबामा के साथ दिखावा करते। आत्ममुग्धता में लीन लगातार विदेश यात्राएं! और वहां जाकर कह रहे हैं कि उनके शासन से पहले भारत में जन्म लेना शर्म की बात थी! आत्ममुग्धता के इस माहौल में प्रधानसेवक अगर अपना नाम छपा सूट पहन कर इतराएं तो इसमें आश्चर्य कैसा? लोग पूछ रहे हैं कि इससे पहले किसी प्रधानमंत्री ने सूट नहीं पहना था क्या और पिछले एक साल में इनकी उपलब्धि क्या है! लेकिन ऐसा सवाल पूछने वाले शायद भोले हैं! वे यह नहीं जानते कि एक साल में हमारे प्रधानसेवक ने कोई छुट्टी नहीं ली, कभी आराम नहीं किया! अब राहुल बाबा को ही लीजिए! चल दिए छुट्टी मनाने किसी अज्ञातवास में! उन्हें जनता की क्या फिक्र!

पिछले एक साल में सांसद से लेकर कई प्रमुख नेताओं तक ने कई बेसुरे बोल बोले। किसी ने कहा कि हर हिंदू को दस बच्चे पैदा करना चाहिए तो किसी ने रामजादे के बरक्स अपना समर्थन नहीं करने वालों को गाली तक दे दी। लेकिन किसे परवाह है ऐसे बोलों की? अपनी धुन में रमे प्रधानसेवक देश-विदेश का दौरा करने में लगे हैं, वे ऐसे लोगों की आपत्तिजनक बोलियों पर कितना ध्यान देंगे! विदेश दौरों से वक्त बचा तो अपने कई लोग हैं जो प्रधानमंत्री की पीठ थपथपा रहे हैं, वह भी कैमरे के सामने। अब प्रोटोकॉल क्या कहता है, इसकी पेच में कौन पड़ता है!

आत्ममुग्धता के कई कारण हैं। देश को जब कोई प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं दिख रहा था तो बस हमारे मौजूदा प्रधानसेवक ही उम्मीद बने। कई शेरों को पिंजरे में बंद कर खुद दहाड़ते रहे। न जाने कितनी दीवारों को तोड़ते हुए संसद भवन की चौखट पर माथा टेका। विरोधियों ने कहा कि चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन गया तो अनर्थ हो जाएगा। लेकिन उन्होंने कहा कि वे देश की सेवा करना चाहते हैं, कालाधन अपने देश वापस लाना चाहते हैं और देश के हर नागरिक के खाते में पंद्रह-पंद्रह लाख रुपए देना चाहते हैं। उनकी यह मंशा उनके एक सबसे करीबी अमित भैया नहीं समझे और बोल दिया कि यह एक जुमला था! अब इतनी सारी उपलब्धियों पर कोई आत्ममुग्ध न हो तो क्या पहली वर्षगांठ पर रोना रोए! ऐसे भी रोने का नहीं, हंसने का नाम जिंदगी है। रोना रहता तो 2002 में न रोते, जो अब रोएंगे!

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