मूलचंद गौतम

बचपन में दुकानों पर लिखी जो दो-चार इबारतें देखीं थीं, उन्हें बाद के दिनों में भी देखते रहे। वे चाह कर भी भूली नहीं जा सकतीं। मसलन ‘उधार प्रेम की कैंची है’, ‘आज नकद कल उधार’, ‘नक्कालों से सावधान’ आदि। नक्कालों की तर्ज पर ही चलता था ‘बक्कालों’। दरअसल, देश पता नहीं कब से असली और नकली के चक्कर में उलझा हुआ है! वर्ण और वर्णसंकर की यह लड़ाई आज भी जारी है, भले समय और सुविधा के हिसाब से नाम बदल गया हो और वर्णसंकर अब ‘जीएम’ यानी जेनेटिकली मेडिफाइड हो गया हो। फिल्मों में भी असली पात्रों से ज्यादा ‘डुप्लीकेट’ लोकप्रिय हो गए हैं, क्योंकि वे सस्ते और सुलभ हैं। सीडी और मोबाइल का बाजार तो ‘लोकल मार्का’ ने ही हथिया लिया है। ‘चीनी सामान’ इसीलिए भारत पर भारी पड़ रहा है। ‘चार सौ बीसी’ को अब अपराध की दफा नहीं, बल्कि चतुराई के पर्याय के तौर पर देखा जाने लगा है। कभी के नटवर नागर नंद कन्हैयाजी आज नटवरलाल से पिट गए हैं!

खासतौर पर परीक्षा के दिनों में नकल की चर्चा कुछ ज्यादा ही होती है। पुराने जमाने के ‘थर्ड क्लास फर्स्ट पोजीशन’ यह मानने को ही तैयार नहीं कि अब ‘फर्स्ट क्लास’ टोकरियों में बंटने लगी है। जबकि दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है। ‘कैट’ में भी सौ फीसद अंक हासिल करना कोई अजूबा नहीं रह गया है। जेब में पैसे हों तो आइएएस से लेकर चिकित्सा विज्ञान में पढ़ाई के लिए दाखिले तक सब कुछ उपलब्ध है। यही ‘मैनेजमेंट’ का कमाल है। जितना लगाओ, उतना पाओ। कई बार उससे ज्यादा भी! अब जरूरत तनख्वाह की नहीं, पैकेज और ऊपरी आमदनी की है। इसे शर्म से नहीं, शान से बताया जाता है, हिंदू होने की तरह! पहले नकलची होने को शर्म की तरह देखा जाता रहा होगा, पकड़े जाने पर लोग शर्मिंदा होते होंगे, अब शान से घर के विदेशी सामान की खूबियों का बखान किया जाता है। ऐसा लगता है कि स्वदेशी और इसका नारा गांधीजी के साथ ही दफ्न हो गया!
पिछले कुछ सालों में ‘अनर्थ-शास्त्र’ ने एक नई शब्दावली को जन्म दिया है।

आज चाणक्य का कोई नाम भी नहीं लेता। जैसा नेता वैसा ही उसका ‘इकॉनोमिक्स’! मसलन, ‘मनमोहनोमिक्स’ या फिर ‘मोदिनोमिक्स…’! समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का कोई बाजार नहीं। कोई-कोई ‘एंटीक्स’ का विदेशी दीवाना मांगता है तो उसे गीता, खादी, चरखा भेंट कर दिया जाता है। व्यापार समझौते उससे अलग होते हैं। माल हमारा शर्तें उनकी! श्रम हमारा, मुनाफा उनका! एमएनसी जिंदाबाद! नकली माल की बढ़ती खपत देख कर ही हमने नकल माफिया की मुखालफत करने के लिए अल्पसंख्यक होने के बावजूद अकल माफिया बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। आखिर अकल की भी कोई कीमत होती ही है बाजार में! फास्ट फूड के बीच आॅर्गेनिक फूड की तरह! देश में मिल गया तो ठीक, नहीं तो विदेश में सही। इसीलिए अब मातृभाषा की जगह अंगरेजी ने ले ली है। स्तरीय भीख मांगने के लिए भी अंगरेजी चाहिए! महरी और नैनी में यही फर्क है। सरकारी शिक्षा और इलाज हासिल करने वालों में अब केवल गरीबी रेखा से नीचे के ही लोग रह गए हैं। वे भी इसलिए ढोए-पाले जा रहे हैं, ताकि उनका वोट अबाध तरीके से मिलता रहे।

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