जावेद अनीस
सत्ता में आते ही ‘अच्छे दिन’ के नारे वाली यह सरकार श्रम कानूनों में बदलाव को जोर-शोर से आगे बढ़ाने में लग गई थी। पिछले वर्ष ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फैक्ट्री कानून, अप्रेंटिस कानून और श्रम कानून (कुछ प्रतिष्ठानों को रिटर्न भरने और रजिस्टर रखने से छूट) में संशोधन को मंजूरी भी दी थी। इसके अलावा केंद्र सरकार ने लोकसभा के इस सत्र में कारखाना (संशोधन) विधेयक, 2014 भी पेश किया था। इस पूरी कवायद के पीछे तर्क था कि इन ‘सुधारों’ से निवेश और रोजगार बढ़ेंगे। कारखाना अधिनियम पहले दस कर्मचारी बिजली की मदद से और बीस कर्मचारी बिना बिजली से चलने वाले संस्थानों पर लागू होता था। संशोधन के बाद यह क्रमश: बीस और चालीस मजदूर वाले संस्थानों पर लागू होगा। ओवरटाइम की सीमा को भी पचास घंटे से बढ़ा कर सौ घंटे और वेतन सहित वार्षिक अवकाश की पात्रता को दो सौ चालीस दिनों से घटा कर नब्बे दिन कर दिया गया है। ठेका मजदूर कानून अब बीस की जगह पचास श्रमिकों पर लागू होगा।
औद्योगिक विवाद अधिनियम के नए प्रावधानों के तहत अब कारखाना प्रबंधन को तीन सौ कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी, पहले यह सीमा सौ मजदूरों की थी। अप्रेंटिसशिप एक्ट, 1961 में भी बदलाव किया गया है। अब यह कानून नहीं लागू करने वाले फैक्ट्री मालिकों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकेगा। यही नहीं, कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समरूपता लाने संबंधी उपाय राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिए गए हैं। इसका मतलब यह होगा कि अब और बड़ी संख्या में श्रमिक श्रम कानूनों के फायदे, जैसे सफाई, पीने का पानी, सुरक्षा, बाल श्रमिकों का नियोजन, काम के घंटे, साप्ताहिक अवकाश, छुट्टियां, मातृत्व अवकाश, ओवरटाइम आदि से महरूम होने वाले हैं।
मोदी सरकार का सरमायेदारों (कारपोरेटों) ने जोरदार स्वागत किया था। इस सरकार से उन्हें बड़ी उम्मीदें हैं, उनके विचारक और पैरोकार बहुत शिद्दत से ‘आर्थिक विकास’ सुनिश्चित करने के लिए ‘कारोबारी प्रतिकूलताएं’ दूर करने की वकालत कर रहे हैं, जिसमें तेजी से आर्थिक और कारोबार संबंधी नीतिगत फैसले लेने, सबसिडी या आर्थिक पुनर्वितरण की नीतियों को सही तरीके से लागू करने की दिशा में कदम उठाने, बुनियादी क्षेत्र में निवेश आदि बातें शामिल हैं। अब सरकार श्रम कानून को दंतहीन बनाने के क्रम में पूरी मुस्तैदी से आगे बढ़ रही है। श्रम कानूनों में बदलाव के पीछे मोदी सरकार का तर्क है कि इनमें सुधार किए बिना देश में बड़े विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, इसके पीछे उत्पादन की धीमी रफ्तार को तोड़ने, रोजगार के नए अवसर सृजन का तर्क भी दिया जा रहा है। दबी जुबान से यह भी कहा जा रहा है कि मजदूर संगठन श्रम कानूनों का इस्तेमाल निवेशकों को प्रताड़ित करने के लिए करते हैं। इसके पीछे मारुति, हीरो होंडा, कोलकाता की जूट मिल कंपनियों की बंदी से उत्पन्न संघर्ष का उदाहरण दिया जा रहा है।
ऐसे में यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि मोदी सरकार के लिए मजदूरों के हितों की जगह देशी, विदेशी पूंजी निवेश ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। श्रम कानूनों में सुधार का फायदा किसी भी कीमत पर मुनाफा कूटने में लगी रहने वाली देशी-विदेशी कंपनियों को ही मिलेगा, मजदूरों को पहले से जो थोड़ी-बहुत आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा मिली थी, उन्हें भी छीना जा रहा है। यह कहना भ्रामक है कि उत्पादन क्षेत्र में धीमी गति और नए रोजगार सृजन में श्रम कानून बाधक हैं। श्रम कानून तो इसलिए बनाए गए थे कि सरमायेदारों की बिरादरी अपने मुनाफे के लिए मजदूरों के इंसान होने के न्यूनतम अधिकार की अवहेलना न कर सके। धीमा उत्पादन और बेरोजगारी की समस्या तो पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। वाकई अच्छे दिन आ गए हैं, लेकिन गरीबों-मजदूरों के नहीं, बल्कि देशी-विदेशी सरमायेदारों के।
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