विकेश कुमार बडोला
जीवन में कई बातें हैं, बहुत से कार्य और व्यवहार हैं। पृथ्वी और इसके जैविक चाल-चलन अपने अद्यतन रूप में आने से पहले अनेक घटन-विघटन से होकर निकले होंगे। इस आधार पर वर्तमान मानवीय समस्याओं और सामाजिक विसंगतियों का अध्ययन कर उनका निराकरण भी ढूंढ़ा जा सकता है। आज मनुष्य जीवन भोग-विलास में उलझा हुआ है। तात्कालिक आनंद प्राप्त करने और येन-केन-प्रकारेण मनोरंजन करने की प्रवृत्ति से मानव का विवेक नहीं रहा। समाज के बहुसंख्यक लोग भौतिक, आधुनिक और वैज्ञानिक आकांक्षाओं के अनुरूप अपना जीवन व्यतीत करने को बाध्य हैं। आवश्यक नहीं कि इसके लिए लोगों की इच्छा मचलती हो। यह सब इसलिए है कि वर्तमान जीवन-व्यवस्था (चाहे वे प्राकृतिक रूप से व्यक्ति के अनुकूल हों या नहीं) के अनुसार जीने में पिछड़ न जाएं।
लेकिन संवेदनशील मानव यह अनुभव करता है कि जैसे वह जी रहा है, वास्तव में जीवन का तात्पर्य वह नहीं है। इस विचार बिंदु पर मानव का खुद से एक अंतर्संवाद नियमित चलता रहता है। विवशता में अंगीकृत आधुनिक जीवन और जैविक चेतना में इच्छित सादगीपरक और स्वाभाविक जीवन के दो परस्पर विचारों का संघर्षण व्यक्ति को आत्मघाती बना रहा है। वह इनमें से किसी एक जीवन के पक्ष में निर्णायक रूप में खड़ा नहीं हो पा रहा। परिणामस्वरूप मनोवांछित सादगी और स्वाभाविक जीवन की इच्छाएं, विवशता में अंगीकार किए गए आधुनिक और वैज्ञानिक जीवन-व्यवहार तले आजीवन दबी रहती हैं। इससे अधिकतर मनुष्यों का जीवन कुंठाओं से उबर नहीं पाता।
लेकिन कम से कम बच्चों के लिए सोच कर हम बहुत सारे काम कर सकते हैं। सबसे पहले घर से शुरू करें। अपने व्यवहार को संयमित बनाएं। टेलीविजन, मोबाइल फोन आदि आधुनिक गैजेट के दुष्प्रभावों के बारे में बच्चों को ज्यादा से ज्यादा जानकारी दें। उन्हें बताएं कि वे इनका यथोचित प्रयोग कर ही इनके लाभ प्राप्त कर सकते हैं। बच्चों को इस दिशा में जागरूक न कर प्रौढ़ और परिपक्व व्यक्ति आज बच्चों के सामने ही टेलीविजन के ऐसे कार्यक्रमों में खूब रुचि दिखाता है। ऐसे में किशोरवय बच्चों को यह सोचने-विचारने का अवसर कैसे, किसकी प्रेरणा से मिलेगा कि वह जो कुछ टीवी पर देख रहा है, उसका अच्छा-बुरा पक्ष क्या है। बच्चों की कम जीवन-समझ के मुताबिक अगर टीवी कार्यक्रम नहीं बन रहे हैं, तो उनके अभिभावक यह बता सकते हैं कि उनके लिए क्या देखना ठीक है और क्या गलत। यह बड़ा दुर्भाग्य है कि लोकतांत्रिक शासन पद्धति के अंतर्गत कई चरणों में बच्चों के लिए शिक्षा से लेकर मनोरंजन के कार्यक्रम बनाने और उनका क्रियान्वयन करने का दायित्व ऐसे ही व्यावसायिक मानसिकता रखने वालों के हाथों में है। इसके दुष्परिणाम क्या हुए हैं, हम देख ही रहे हैं।
प्रगति की बात होती है तो इसका तात्पर्य क्या है। क्या यही कि हर व्यक्ति के पास भव्य घर, सुविधाओं से युक्त वाहन, धन-संपत्ति का संग्रह आदि हो? सच यह है कि भौतिक सुख-सुविधाओं के अतिदोहन के दुष्परिणाम हमें कई तरह से पीड़ा दे रहे हैं। आज लोग पहले कभी नहीं महसूस किए गए मनोरोगों से पीड़ित हैं। कई बार लगता है कि हम मानवीय संरचना हैं या मशीनी। अगर यह वैचारिक लगन बढ़ ही रही है और भौतिक संसाधनों की बेलगाम भूख में आगे भी इसके ऐसे ही बढ़ते रहने की आशंका है, तो तब हमारे पास बचेगा क्या! एक रिक्त और भावनाशून्य जीवन, जिसकी अपने एकांत जीवन में हमें कभी अपेक्षा नहीं रहती, पर आज के भ्रमित सामूहिक जीवन के कारण हमें इसे ही अंगीकार करना पड़ता है।
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