ईश मिश्र

इतिहास कभी अपने को दुहराता नहीं, प्रतिध्वनित होता है और प्रतिध्वनियां कई बार भयानक लगती हैं। नेहरू के समय इंदिरा गांधी संविधानेतर सत्ता के केंद्र के रूप में उभर रही थीं। कहते हैं कि उन्हीं की इच्छा से केरल की वामपंथी सरकार गिराई गई थी। वे उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थीं। तब यह बात उछली, लेकिन ‘राष्ट्र-निर्माण’ के शुरुआती दिनों में नेहरू के कद के चलते बहुत ऊपर तक नहीं गई। फिर इंदिरा गांधी जब ‘गरीबी हटाओ’ के ‘मंत्र’ से गरीबों को ही हटाने लगीं, तब उनके बेटे संजय गांधी युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बाद में बने और संविधानेतर सत्ता के केंद्र पहले। संजय गांधी ने एक कबाड़ के कारोबारी धीरूभाई अंबानी की पीठ पर हाथ रखा तो वे कबाड़पति से अरबपति बन गए।

लेकिन इंदिरा गांधी की तो छोड़िए, संजय की पीठ पर भी हाथ रखने की किसी थैलीशाह की हिम्मत या हैसियत नहीं थी। एक ही पीढ़ी में इतना परिवर्तन हुआ कि धीरूभाई के बेटे का हाथ संवैधानिक सत्ता की पीठ पर पहुंच गया। संजय की मौत के बाद समांतर सत्ता का यह केंद्र कुछ दिन खाली रहा।

अराजनीतिक स्वभाव के चलते राजीव गांधी यह पद नहीं भर पाए, मगर इंदिरा गांधी की मौत के बाद सीधे संवैधानिक केंद्र में पहुंच गए। संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी आखिर ‘संघ’ की शरण में चली गर्इं।

विश्वनाथ प्रताप सिंह के संक्षिप्त शासनकाल में आडवाणी के नेतृत्व में हिंदुत्व संविधानेतर केंद्र के रूप में उभरा, जिसने कमंडल से मंडल को ध्वस्त करने के रथयात्रा से मंडलवादी सरकार को ही ध्वस्त कर दिया। नरसिंह राव और मनमोहन सिंह सरकारों का संविधानेतर केंद्र जगजाहिर रहा। तमाम संविधानेतर केंद्रों के चलते देवेगौड़ा-गुजराल की सरकारें अल्पजीवी रहीं। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में यह केंद्र नागपुर चला गया, लेकिन लुके-छिपे। राजधर्म की दुहाई देते हुए गुजरात जनसंहार को इतिहास पर कलंक मान कर गुजरात सरकार को बर्खास्त करने या उसकी निंदा करने की अटल बिहारी वाजपेयी की ख्वाहिश पर ‘वीटो’ लग गया और उन्हें जनसंहार को ‘आपद्धर्म’ बताना पड़ा। मोदीजी के राज में सत्ता का यह संविधानेतर केंद्र ‘संजय शैली’ में खुल कर सामने आ गया है। भ्रष्टाचार और अनियमितता के आरोपों से घिरे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति या एम्स के निदेशक राष्ट्रपति के दरबार नहीं, भागवत-दर्शन करने लगे हैं!

एडम स्मिथ मुनाफा कमाने की गतिविधियों के उप-परिणाम के रूप में इतिहास की व्याख्या करते हुए जानबूझ कर समन्वयक शक्ति को सरकार न कह कर ‘बाजार के अदृश्य हाथ’ कहते हैं। कार्ल मार्क्स ने अदृश्य हाथों का रहस्योद्घाटन करते हुए राज्य मशीनरी को पूंजीपति वर्ग के सामान्य हितों का कार्यकारी दल बताया। लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था अपने अंतर्निहित दोहरे चरित्र के चलते राज्य को एक निष्पक्ष इकाई घोषित करती है, इसलिए शासक सार्वजनिक मंचों पर पूंजीपतियों का कारिंदा दिखने से बचता है, खासकर उदारवादी जनतंत्र में जहां सरकार जनता के संसाधनों से पूंजीवाद की सेवा करती है, लेकिन दावा जनता की सेवा का करती है।

यह अदृश्य हाथ आज साफ दिखता है। टाटा को किसानों की जमीन पर कब्जा दिलाने के लिए, आंदोलनकारी किसानों पर गोलीबारी करके सोलह आदिवासी किसानों की हत्या बाजार के अदृश्य हाथ नहीं, ओड़िशा सरकार करती है। बहुराष्ट्रीय कंपनी पास्को को किसानों की जमीन पर काबिज होने के लिए पान के भीटों से समृद्ध जगतसिंहपुर के किसानों को बाजार के अदृश्य हाथ नहीं, भारत सरकार उजाड़ रही है। जनता (किसान-मजदूर) को और भी दयनीय बना कर भूमंडलीय पूंजी की सेवा के लिए जनविरोधी नीतियों का प्रस्ताव बाजार के अदृश्य हाथ का नहीं, बल्कि विशाल बहुमत से सत्तासीन ‘विकास पुरुष’ मोदी सरकार का है।

आज मुनाफाखोर की पीठ पर सत्ता के हाथ के बजाय मुनाफाखोर का हाथ सत्ता की पीठ पर पहुंच गया। एक और उदाहरण है। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, जिन्होंने गर्व से कोयला माफिया सूरजदेव सिंह से अपनी मित्रता का सार्वजनिक इजहार किया था। इतिहास खुद को दुहराता नहीं, प्रतिध्वनित होता है। भयावह है मौजूदा प्रतिध्वनि!

 

 

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