अरुण माहेश्वरी
जनसत्ता 9 अक्तूबर, 2014: राजनीतिक यथार्थ और व्यक्तिगत त्रासदियों के अंतर्संबंधों की जटिलताओं की एक अनोखी कहानी है फिल्म ‘हैदर’। राष्ट्रवादी उन्माद की राजनीति के भारी-भरकम चट्टानों के नीचे दबे जीवन के अंदर ईर्ष्या, द्वेष, डर, आतंक, साजिशों, हत्याओं और लगातार हिंसा से विकृत हो रहे मानवीय रिश्तों का ऐसा सुगठित आख्यान हिंदी फिल्मों की मुख्यधारा में मुमकिन है, हम सोच नहीं सकते थे। ‘हैमलेट’ का अवलंब और कश्मीर की अंतहीन मानवीय त्रासदी के महाख्यान को रचने का शायद इससे सुंदर दूसरा कोई मेल नहीं हो सकता था! हैमलेट और कश्मीर का नौजवान- कितना सादृश्य है दोनों में! कश्मीर खुद ही हैमलेट से किस मायने में कम है! अपनी दुविधाओं, प्रतिशोध की धधकती आग, षड्यंत्रों, अतार्किक हिंसा और महाविनाशकारी त्रासद दुखांत में!
‘हैमलेट’ में क्लाडियस अपने भाई हैमलेट के पिता की हत्या करके डेनमार्क का राजा बनता है और हैमलेट की मां उसकी रानी। राजदरबार में मौत का शोक और शादी का उत्सव, दोनों साथ होते हैं। अति-संवेदनशील और कुशाग्र हैमलेट यह सब देख कर बदहवास है। क्लाडियस उसे समझाता है- ‘जीवन-मृत्यु तो शाश्वत सत्य है। यही होना था! व्यर्थ शोक को मिट्टी में फेंको! तुम्हारे आगे सारा जीवन पड़ा है। शोक से निकलो, तुम्हें धरती के सारे सुख दूंगा!’ लेकिन हैमलेट! पिता की प्रेतात्मा ने हैमलेट को बता दिया था कि उसकी हत्या क्लाडियस ने ही की थी और हैमलेट को इसका बदला लेना है।राजा का मिथ्याचार, मां की कमजोरियां और पोलोनियस जैसे राज्याधिकारियों की राजा के प्रति अंधनिष्ठा- इन सबको देख कर प्रतिशोध की आग और आत्मघात की गहरी घुटन से भरा बेचैन हैमलेट पिता की हत्या के दृश्य को नाटक के रूप में पेश करके क्लाडियस को बेनकाब करता है।
हैमलेट क्लाडियस को मार डालने की फिराक में और क्लाडियस हैमलेट को। मौका पाकर भी अपने संस्कारों के कारण हैमलेट प्रार्थना कर रहे क्लाडियस को मार कर स्वर्ग में नहीं भेजना चाहता है। अंत में पोलोनियस के बेटे लेयर्टीज के साथ तलवारबाजी में जहर बुझी तलवार और जहरीली शराब से क्लाडियस, रानी, हैमलेट सब मारे जाते हैं। पीछे छूट जाते हैं- लाशों का ढेर और उनकी कहानियां। मरते वक्त भी अविश्वास से भरा हुआ हैमलेट होरेशियो से फरियाद करता है- ‘अगर तूने कभी मुझे अपने दिल में जगह दी हो तो छोड़ दे अपनी खुशी थोड़ी देर के लिए और इस जालिम दुनिया में अपने दर्द की सांसें गिनते हुए मेरी कहानी कहने के लिए जिंदा रह।’
कश्मीर में जितने प्रकट मिथ्याचार, प्रतिशोध, साजिश, हत्या और अंतहीन हिंसा के रूप में शासन और राजनीति के नाम पर जो कुछ चलता रहा है, उसका अंत ऐसी ही वीभत्स विध्वंसक त्रासदियों के अलावा और किसी में नहीं हो सकता। कश्मीर की पृष्ठभूमि पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं। इसीलिए कब कोई फिल्म मुख्यधारा की फिल्म के अपने तर्क पर चलने लगेगी और सब मटियामेट हो जाएगा, इसका खतरा बना हुआ था। लेकिन विशाल भारद्वाज ने हैमलेट और कश्मीर के जख्मों की कहानी का इस फिल्म में बखूबी निर्वाह किया है।
‘हैमलेट’ एक ऐसा विषय है, जिसके सारी दुनिया में न जाने कितने फिल्म और नाट्य रूपांतरण हुए होंगे। हैमलेट का ‘होने, न होने’ की दुविधा में फंसे, प्रतिशोध के नर्क की आग में जलते चरित्र का आकर्षण कभी खत्म नहीं हो सकता। यह नाटक भी कोई व्यक्तिगत त्रासदी मात्र नहीं था। उसके साथ अविभाज्य तौर पर तख्तो-ताज, राजनीति और डेनमार्क का सवाल जुड़ा हुआ था। ‘हैदर’ की भी विशेषता यह है कि इसमें सिर्फ चरित्र नहीं, पूरा परिवेश ही ‘हैमलेट’ की त्रासदी की कहानी बयां करता है। भारतीय फिल्म के इतिहास में ‘हैदर’ को मैं एक महत्त्वपूर्ण योगदान मानूंगा।
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