रिम्मी

जनसत्ता 8 अक्तूबर, 2014: प्रियंका चोपड़ा अभिनीत फिल्म मैरीकॉम देखी। बस शानदार कहना इस फिल्म के लिए काफी नहीं है। इस फिल्म को देखते हुए कई बातें जेहन में आर्इं, पर जिस चीज ने झकझोरा वह थी कि यों तो हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है, पर धर्म का दर्जा एक जमाने में ‘जेंटल मैन्स गेम’ कहे जाने वाले क्रिकेट को मिला हुआ है। विश्वकप जीतने पर क्रिकेटरों को करोड़ों रुपए के इनाम के अलावा कई तरह की सुविधाएं मिलती हैं। सारे राजसी ठाठ-बाट से वे लैस होते हैं। भारतीय टीम में आते ही सभी खिलाड़ी खुद को भगवान समझने लगते हैं। वहीं हमारे यहां के बाकी खेलों को दोयम दर्जे का भी नहीं समझा जाता। खिलाड़ी जानवर से भी बदतर सलूक बर्दाश्त करते हैं। महिला खिलाड़ियों को खाने-पीने और रहने का कष्ट ही नहीं झेलना पड़ता, उन्हें खेल संघ के अधिकारियों का दुर्व्यवहार भी बर्दाश्त करना पड़ता है। फिर भी हर क्षेत्र में खिलाड़ी अपनी सफलता का इतिहास लिख रहे हैं। यह उनके जीवट का सबूत है।

खैर, खेलों की तरफ अब जाकर फिल्मी दुनिया का ध्यान जा रहा है, यह सुकून देने वाली बात है। पर हैरानी की बात है कि जब धर्म माने जाने वाले क्रिकेट पर कोई फिल्म बनी तो वह नकारात्मक कथानक पर ही थी। ‘इकबाल’ और ‘लगान’ किसी खिलाड़ी के संघर्ष को नहीं दिखातीं, बल्कि यह संदेश देती हैं कि व्यक्ति अपनेजुनून और इच्छाशक्ति से कुछ भी पा सकता है। किसी खिलाड़ी के जीवन से सीख देने वाली कोई कहानी नहीं बनी। चाहे वह क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन हों, ‘द वाल’ माने जाने वाले राहुल द्रविड़, आज की पीढ़ी के चहेते ‘कैप्टन कूल’ या फिर क्रिकेट को भारत में स्थापित करने वाले टाइगर पटौदी, कपिलदेव या गावस्कर! किसी की भी जीवनी या उनका संघर्ष अब तक बड़े परदे पर आने से चूक गया है। लेकिन अब ‘सौतेले’ बच्चे की तरह पाले जा रहे अन्य खेल में ऐसे कई खिलाड़ी और घटनाएं हैं, जिन पर लोगों का ध्यान जा रहा है और उन पर फिल्में बन रही हैं।

‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से प्रसिद्ध मिल्खा सिंह पर बनी ‘भाग मिल्खा भाग’, हॉकी की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘चक दे इंडिया’ और अब ‘मैरीकॉम’। ये सभी फिल्में एक पात्र के इर्द-गिर्द घूमती हैं। उनकी मेहनत, लगन, उनके जीवन में आए उतार-चढ़ाव के बावजूद उनके लड़ते रहने के जीवट को दिखाती हैं। साथ ही हमें प्रेरित करती हैं कि जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए। सबसे अच्छी बात है कि इन फिल्मों को दर्शक हाथोंहाथ ले रहे हैं। बॉक्स ऑफिस पर ये फिल्में नामी-गिरामी सितारों की मसाला फिल्मों की तरह दो सौ करोड़ तो नहीं कमा रहीं, पर अपने निर्माता-निर्देशकों को भूखा भी नहीं मरने दे रहीं। यह विडंबना ही है कि क्रिकेट से हम ऐसी कोई कहानी अभी तक नहीं उठा पाए। आखिर क्यों ऐसा हो रहा है! ऐसा तो है नहीं कि क्रिकेट खिलाड़ियों की जिंदगी में किसी भी तरह का संघर्ष नहीं होता! फिर भी जिस तरह हमारा फिल्म उद्योग अन्य खेलों में कहानी खोज और हमारे यहां के खेल संघों के नकारेपन को सामने ला रहा है, उससे यह उम्मीद की जा सकती है कि कभी तो हमारी सरकार को समझ में आएगा और दूसरे खेलों की भी सुध ली जाएगी!

 

 

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