सुरजीत सिंह

मेरे पड़ोस में रहने वाला कांस्टेबल दो दिन से अन्यमनस्क है, चुप-सा है, अनिद्रा का शिकार है। मुझे यह देख कर ताज्जुब हो रहा है कि उसे दो दिन की छुट्टी कैसे मिल गई, जबकि वह बीमार भी दिखाई नहीं दे रहा। वरना उसे एक-एक दिन की छुट्टी के लिए मुख्यालय तक गुहार लगाते मैंने देखा है। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि रोज सुबह पांच बजे उठ कर दौड़ के लिए निकल जाने वाला, छह बजे अपने दोनों बच्चों को उठा कर दैनिक कार्यों से निवृत्त करा, छत पर उन्हें थोड़ी वर्जिश करा, फिर नहा-धुला कर आठ बजे उनकी स्कूल की गाड़ी आने से पहले एक घंटे पढ़ाई भी करवा लेता। दोपहर को भागते-दौड़ते खाना खाने आता, तब भी जाते-जाते बच्चों को कुछ सबक याद करवा जाता। शाम को आता, तब भी मैं उसे बच्चों के साथ पढ़ाई में ही मशगूल देखता। मुझ जैसा घोर आलसी रोज यह देख कर हैरान रह जाता है कि नौ बजते-बजते उधर के हिस्से में बत्तियां गुल हो जाती हैं और एक सन्नाटा पसर जाता है। पिछले चार माह से मैं यह लगातार देख रहा हूं। यही वजह है कि सुबह वह परिवार इतना जल्दी उठ पाता है और हम साढ़े सात बजे उठ कर थोड़ी शर्मिंदगी और झेंप के साथ रोज शपथ ग्रहण करते हैं कि कल से हम भी कोशिश करेंगे।

खैर, उसकी खामोशी मुझे दो दिन से अखर रही थी। बच्चों से उसे बतियाते भी नहीं सुना। आज सुबह सच भी सामने आ गया। तीन रोज पहले आधी रात को मोटर साइकिल सवार एक युवक दुर्घटना का शिकार हुआ और उसका शरीर सड़क से इस कदर चिपक गया कि उसे खुरच कर ही बोरी में भरा जा सका। खुरचने वाला कोई और नहीं, मेरा पड़ोसी कांस्टेबल ही था। तब से वह सदमे में है। उसकी खोई-खोई-सी आंखों में उस मंजर की भयावहता लहरा रही है! जब से यह जाना है, बड़ी बेचैनी है। एक मलाल भी है कि गाहे-बगाहे, हर कहीं वर्दी वाले को देखते ही बेईमान, संवेदनहीन, चोर जैसे मुफ्त के तमगे देने की जल्दी में रहने वाले हम लोग क्या कभी सोचते हैं कि एक कांस्टेबल भी संवेदनशील हो सकता है और वह किन परिस्थितियों में काम करता है! छुट्टी शब्द जिसकी नौकरी में नहीं है, सारे पारिवारिक दायित्वों में लगभग उसकी अनुपस्थिति तय रहती है या वह उन्हें भागमभाग में निपटाता है। ऊपर से विभाग से लेकर आमजन की गालियों की बारिश अलग! जो लोग एक घायल को तत्काल अस्पताल पहुंचाने जितनी संवेदना भी नहीं दिखाते, उसके दस मिनट देर से आने को आराम से कोस सकते हैं। हर नौकरी में लेटलतीफी, गैरहाजिर होना, दफ्तर से नदारद रहना, मौजूद रह कर भी काम नहीं करना, छुट्टी मार कर दस्तखत कर देना आराम से चलता है, लेकिन पुलिस में ऐसा मुमकिन नहीं!

एक अखबार में बारह साल पुलिस बीट में काम कर चुका मेरा मित्र ओमप्रकाश बार-बार यही कहता है कि ‘अगर व्यवस्था कहीं बची हुई है, तो सिर्फ पुलिस के कारण। बाकी सारे विभाग फेल हो चुके हैं। मैंने सारे विभागों की कार्यप्रणाली नजदीक से देखी है, लेकिन पुलिस की हर आवश्यक जगह मौजूदगी अनिवार्य है और वह वहां होती है। कहीं सड़क टूटने, बिजली या टेलीफोन वालों की मेहरबानी से सड़क खोदे जाने, फिर भरने के लिए पलट कर नहीं आने या रोड पर एक पशु के मारे जाने से जाम लग जाए, तो उसे खुलवाने, पशु उठवाने, गड्ढे भरवाने के लिए भी एक आम दिमाग में कोसने के लिए पहली छवि जो उभरती है, वह पुलिस की ही होती है। नगर निगम या सड़क वाले महकमे के लोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।’

मित्र के पास गिनाने के लिए एक लंबी फेहरिस्त है, उसे हम चाह कर भी नकार नहीं सकते। मेरे पास उससे सहमत होने के पर्याप्त कारण हैं!

 

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