दीपक शर्मा ‘सार्थक’
कहा जाता है कि एक पौधे के विकास के लिए दो आवश्यक शर्तें होती हैं। पहली उसके बीज की गुणवत्ता, दूसरा, उसे प्रदान किया गया वातावरण। बीज में चाहे जितने गुण हों, अगर उसे ऐसे ही फेंक दिया जाए तो उसके विकास की संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। यही नियम मनुष्य के विकास पर भी लागू होता है। लगभग सभी मनोवैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि आनुवंशिक गुणों के साथ वातावरण भी बच्चों के विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। भारतीय परिवेश में बाल विकास की क्या स्थिति है, यह कोई छिपा हुआ संदर्भ नहीं है। यहां की शिक्षा पद्धति और सामाजिक वातावरण, सभी सवालों के घेरे में है। यहां अभिभावक अपने बच्चों को पूंजी की तरह समझते हैं। जिस तरह पूंजी का निवेश होता है, उस पर नियंत्रण रखा जाता है, उसी तरह यहां अभिभावक भी बच्चों का जिस क्षेत्र में चाहते हैं, निवेश करते हैं और उन पर काबू रखते हैं। उनके विचार और दृष्टिकोण, सभी कुछ अभिभावक ही निर्धारित करते हैं। वे बच्चों के विचारों पर अपने खोखले आदर्शवाद और अनुशासन की मोटी परिधि बना देते हैं। मजाल है कि कोई बच्चा इसके उस तरफ देख भी ले!
जो हस्तांतरित विचार और परंपराएं अभिभावकों को अपने माता-पिता या देखभाल करने वालों से मिली होती हैं, उन्हीं के सहारे उनके बच्चे अपना जीवनयापन करते हैं। उसके बाद यहां यह रोना रोया जाता है कि हमारे यहां शोध और आविष्कार नहीं हो रहे हैं। सवाल है कि शोध या आविष्कार होंगे भी कैसे! यहां विचारक नहीं, श्रमिक तैयार किए जाते हैं। वैसे श्रमिक, जिनके हिस्से अपना सोच या कोई दर्शन नहीं, केवल आयातित विचार हैं। जिज्ञासा एक मूल प्रवृत्ति है जो सीखने के लिए प्रेरित करती है। बच्चों में अधिक जिज्ञासा होने के कारण वे बहुत से प्रश्न करते हैं। वे हर वस्तु को अचरज से देखते हैं और कल्पनाओं की दुनिया में विचरण करते हैं। इसी से आगे चल कर उनकी सृजनात्मकता उभर कर सामने आती है। लेकिन अब उनकी कल्पनाशीलता बस्ते के भार से दब गई है। उनकी जिज्ञासा से चमकती आंखों पर अब पत्थर जैसे मृत-भाव छाए दिखते हैं। उनसे उनका बचपन छीन लिया गया है और उन्हें समय से पहले जबर्दस्ती ‘समझदार’ बनाया जा रहा है!
अब वे खिलखिला कर नहीं हंसते हैं। अब उन्हें परियों की कहानियां आकर्षित नहीं करती हैं! उनका मुरझाया हुआ चेहरा इस बात का सबूत है कि उनकी जिज्ञासाओं का बेदर्दी से कत्ल कर दिया गया है। विचित्र यह भी है कि उनकी जिज्ञासाओं और मुस्कराहट का हत्यारा यह समाज, बाद में उनसे आदर्श नागरिक होने की आशा करता है। अगर यह स्वार्थी समाज खुद अपना भला चाहता है तो इसे अपनी ही बनाई उस परिधि को तोड़ना होगा, जिसने मासूमों के विचारों और कल्पनाओं को कैद कर रखा है, ताकि मासूम फिर से कल्पनाओं की दुनिया में विचरण कर सकें, खिलखिला कर हंस सकें। वे गलतियों से सीखें और बिल्कुल अपने विचारों और सिद्धांतों का निर्माण कर सकें। वरना इस देश में कोई एडिसन या आइंस्टाइन नहीं होगा। होंगी तो सिर्फ मिट्टी की बनी मशीनें!
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