मैं जन्मी ही क्यों जाती हूँ?

जब, पूरे जीवन आलोचित की जाती हूँ |

बचपन में, ब्रह्मांड की अनंत गहराइयों को छूना चाहती हूँ

पर अपने ही परिवार में बोझ समझी जाती हूँ

समाज की तीखी नज़रों से बचकर,

थोड़ी बहुत शिक्षा पा जाती हूँ

इन सभी विडम्बनाओं के बाद,

जैसे-तैसे बड़ी हो पाती हूँ

फिर किसी अनजान शख्स को,

दान में दे दी जाती हूँ

फिर उसी अनजान के परिवार को,

बड़े प्रेम से अपनाती हूँ,

उसका हर सुख-दुःख अपने साथ बँटाती हूँ

इन सबसे, मैं धीरे-धीरे

पारिवारिक जिम्मेदारियाँ समझ जाती हूँ

और इन सब में ही उलझकर,

अपने भविष्य के सपनों को भुला जाती हूँ

फिर न तो अपना भला कर पाती हूँ

और ना ही देश और समाज के प्रति,

अपना दायित्व ही निभा पाती हूँ

थोड़े समयोपरांत गर्भवती हो जाती हूँ

और, खिलखिलाते शैशव को देखने के लिए,

असंख्य वेदनाएं सह जाती हूँ

लड़का हुआ तो सम्मान पाती हूँ

और लड़की हुई तो फिर एक कन्या को,

अपनी ही तरह दान कर देने का भाग्य पाती हूँ

फिर अपने बच्चों पर अपनी सारी ममता लुटाती हूँ

और उन्हें सर्वोत्तम संस्कार देने का प्रयास करती हूँ

फिर इन सबके बदले में अपने बच्चों के ताने पाती हूँ

और इस सबके बावजूद भी मैं पुरुष के पैर की जूती,

ही समझी जाती हूँ?

आखिर मैं जन्मी ही क्यों जाती हूँ?

(हमारे पाठक तेज तरुण ने इस कविता को अपनी मौलिक रचना बताते हुए हमें भेजी है)