खोजी पत्रकारों के एक अंतरराष्ट्रीय समूह ने अपनी खोजबीन के बाद ब्रिटिश बैंक एचएसबीसी की स्विट्जरलैंड स्थित शाखा के अनेक देशों के खाताधारकों के नाम उजागर किए हैं। इनमें भातीय नाम भी हैं। ताजा खुलासे के बाद इस स्विस बैंक के भारतीय खाताधारकों की संख्या करीब बारह सौ तक पहुंच चुकी है। इन खातों में कुल जमा रकम पच्चीस हजार चार सौ बीस करोड़ रुपए है। लेकिन यह सिर्फ एक स्विस बैंक का आंकड़ा है। स्विट्जरलैंड में ही ऐसे और कई बैंक हैं जो गुप्त ख्राते रखते हैं। फिर, और भी कई देशों में चोरी-छिपे पैसा जमा करने वाले बैंक हैं। यानी ताजा खुलासा बाहर जमा काले धन की जानकारी का एक अंश भर है। दूसरी बात यह है कि कहने को हमारे देश ने काले धन का पता लगाने के लिए अनेक देशों से समझौते कर रखे हैं, और जब भी काले धन का मसला उठा है, सरकारें इन समझौतों का हवाला देकर अपनी कोशिशों की दुहाई देती रही हैं। लेकिन जानकारी जुटाने में इन समझौतों से क्या मदद मिली है? अभी तक जो भी सूचनाएं हासिल हुई हैं, किसी-न-किसी गैर-सरकारी खुलासे के जरिए।
कुछ साल पहले एचएसबीसी की स्विस शाखा के एक कर्मचारी ने वहां के खाताधारकों से संबंधित जानकारी फ्रांस सरकार को चोरी-छिपे दी थी या बेच दी थी। फ्रांस ने इनमें से भारतीय खाताधारकों से जुड़ी सूचनाएं भारत सरकार को मुहैया करा दीं। तब केंद्र में यूपीए सरकार थी। वह फ्रांस से मिली जानकारी पर कुंडली मारकर बैठी रही। कुछ नाम तभी सामने आए जब सर्वोच्च न्यायालय ने जवाब तलब किया। मोदी सरकार के समय एसआइटी का गठन न्यायालय के निर्देश पर ही हो सका। अब तक का अनुभव बताता है कि बाहर जमा काले धन का पता लगाने और उसे देश में वापस लाने को लेकर कोई भी सरकार गंभीर नहीं रही है। यह अलग बात है कि भाजपा ने इसे बड़ा चुनावी मुद््दा बनाया। मोदी ने अपनी सरकार बनने पर सौ दिनों के भीतर काला धन वापस लाने और देश के हर गरीब परिवार के खाते में पंद्रह लाख रुपए जमा करने का वादा किया था। मगर अब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं कि काले धन की वापसी का मुद््दा महज एक आकर्षक चुनावी जुमला था। इससे समझा जा सकता है कि इस मामले में मोदी सरकार से कितनी उम्मीद की जा सकती है। वैसे भी जो सरकार देश के भीतर काले धन के प्रवाह को रोकने और उसके स्रोतों को बंद करने के लिए सक्रिय न हो, वह बाहर जमा काले धन को लेकर हवाई वादे ही कर सकती है।
माना जाता है कि चुनावों में भी काले धन का इस्तेमाल बढ़ता गया है। शायद यही वजह है कि अधिकतर राजनीतिक दल अपने आय-व्यय को आरटीआइ के दायरे में नहीं लाना चाहते। एसआइटी के गठन से कुछ उम्मीद जरूर बनी है। पर उसकी जांच पूरी होने का इंतजार न करसरकार कुछ कदम अविलंब उठा सकती है। उसे विदेश में खाता होने की जानकारी सरकार को देना अनिवार्य कर देना चाहिए। इससे काले धन की पड़ताल करना आसान हो जाएगा। दूसरे, शेयर बाजार में पी-नोट के जरिए अपनी पहचान छिपा कर निवेश करने की छूट बंद होनी चाहिए। फर्जी कंपनियां बनाना भी काले धन को उधर से इधर करने का एक प्रचलित तरीका है। ऐसे हथकंडों से निपटने के लिए सरकार को किसी अंतरराष्ट्रीय संधि या किसी अन्य देश से सहयोग की जरूरत नहीं है। अगर वह काले धन पर लगाम लगाने के लिए संजीदा है तो ये कदम क्यों नहीं उठाए जाते!
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