सरकार ने पिछले आठ दशकों में पहली बार सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना (एसईसीसी) में जाति आधारित आंकड़े जारी करने से बचते हुए कहा कि उसका आर्थिक आंकड़े से लेना-देना है, जो उसके कार्यक्रमों के कारगर कार्यान्वयन में मददगार होगा।
बिहार चुनाव से पहले राजनीतिक कारणों से जातिगत संख्या बताने से सरकार के बचने की बातों को खारिज करते हुए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है। चुनाव से इसे जोड़ना अच्छा नहीं है। यह डीजी जनगणना के अधिकार क्षेत्र में है। यह उन्हें तय करना है कि वे इस बारे में क्या सोचते हैं। यह पूरी तरह से डीजी के अधिकार क्षेत्र में है। सिर्फ वही इस पर टिप्पणी कर सकते हैं। सिर्फ वही आपके सवालों का जवाब दे सकते हैं।
चौधरी से एसईसीसी की रिपोर्ट में क्यों जातिगत संख्या को शामिल नहीं किया गया और भविष्य में इसे जारी किया जाएगा या नहीं इस बारे में पूछा गया था। एसईसीसी प्रक्रिया यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2011 में शुरू हुई थी, जिसे लेकर काफी राजनीतिक विवाद हुआ था। तत्कालीन सरकार समेत विभिन्न राजनीतिक दलों के ओबीसी नेताओं ने एसईसीसी में जातिगत गणना 1931 की जनगणना की तर्ज पर करने की वकालत की थी।
सपा के मुलायम सिंह यादव, राजद के लालू प्रसाद और जद (एकी) के शरद यादव ने 2010 और 2011 में संसद के भीतर और बाहर जोरदार तरीके से इस मुद्दे को उठाया था। उन्होंने मांग की थी कि इसे जाति के आधार पर किया जाना चाहिए ताकि पिछड़े वर्ग से जुड़े लोगों की संख्या का पता लगाया जा सके। यूपीए मंत्रिमंडल में भी इसपर काफी मतभेद थे। जो लोग इसके विरोध में थे उन्हें आशंका थी कि यह मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना हो सकता है और आरक्षण पर नए सिरे से गौर करने की मांगें उठ सकती हैं। यह 1931 के बाद पहली जनगणना है और इसमें विशेष क्षेत्र, समुदायों, जातियों और आर्थिक समूहों के संबंध में विभिन्न विवरण और भारत में घरों की प्रगति को मापा गया है।
चौधरी ने एसईसीसी रिपोर्ट में जातिगत आंकड़े नहीं जारी करने को लेकर बार-बार पूछे गए सवालों को टाल दिया। उन्होंने कहा कि उनके मंत्रालय का सिर्फ लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन के आंकड़े से लेना-देना है। उन्होंने कहा कि हमारा आर्थिक आंकड़े से लेना-देना है ताकि हम अपने कार्यक्रमों को यह जानते हुए लागू कर सकें कि आज किसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। हालांकि, उन्होंने इन दलीलों को खारिज कर दिया कि सरकार बिहार विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए जाति पर आंकड़े जारी करने से बच रही है, जहां विरोधी राजद-जद (एकी) गठबंधन के नेता लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ओबीसी का प्रतिनिधित्व करते हैं और संख्या के आधार पर उन्हें मजबूत ताकत माना जा रहा है।
उन्होंने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है। चुनाव के साथ इसे जोड़ना सही नहीं है। जो सर्वेक्षण हमने कराया उसमें ये सभी आंकड़े, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की श्रेणियां हैं, जिसका हमने वहां अपने आंकड़े में उल्लेख किया था।
बिहार चुनाव का डर नहीं
बिहार चुनाव से पहले राजनीतिक कारणों से जातिगत संख्या बताने से सरकार के बचने की बातों को खारिज करते हुए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है। चुनाव से इसे जोड़ना अच्छा नहीं है। यह डीजी जनगणना के अधिकार क्षेत्र में है। यह उन्हें तय करना है कि वे इस बारे में क्या सोचते हैं।
संसद में उठा था शोर
सपा के मुलायम सिंह यादव, राजद के लालू प्रसाद और जद (एकी) के शरद यादव ने 2010 और 2011 में संसद के भीतर और बाहर जोरदार तरीके से इस मुद्दे को उठाया था। उन्होंने मांग की थी कि इसे जाति के आधार पर किया जाना चाहिए ताकि पिछड़े वर्ग से जुड़े लोगों की संख्या का पता लगाया जा सके।
‘मधुमक्खी का छत्ता’
एसईसीसी प्रक्रिया यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2011 में शुरू हुई थी, जिसे लेकर काफी राजनीतिक विवाद हुआ था। तत्कालीन सरकार समेत विभिन्न राजनीतिक दलों के ओबीसी नेताओं ने एसईसीसी में जातिगत गणना 1931 की जनगणना की तर्ज पर करने की वकालत की थी। यूपीए मंत्रिमंडल में भी इसपर काफी मतभेद थे। आशंका थी कि यह मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना हो सकता है और आरक्षण पर नए सिरे से गौर करने की मांगें उठ सकती हैं।