निवेशक दो तरह के होते हैं। एक वो जो हायर रिटर्न के लिए बॉन्ड जैसे जोखिम भरे निवेश विकल्प में पैसे लगा सकते हैं। वहीं दूसरे एफडी जैसे कम रिस्क वाले निवेश विकल्प में पैसे लगाकर कम रिटर्न के साथ भी खुश रहते हैं। इनके अलावा निवेशकों का एक ऐसा ग्रुप भी है जिनकी नजर में एफडी और बॉन्ड, दोनों अच्छे निवेश विकल्प हैं। रिस्क लेने से बचने वाले निवेशकों के लिए फिक्स्ड डिपॉजिट यानी एफडी एक सुरक्षित विकल्प माना जाता है। बैंक एफडी पर गारंटीड रिटर्न के साथ सरकारी संस्था डीआईसीजीसी की ओर से 5 लाख रुपये तक का इंश्योरेंस कवर मिलता है। रिस्क से बचने वाले निवेशकों के लिए डिजाइन की गई बांड और एफडी, दोनों कई मायनों में एक दूसरे से अलग हैं। आइए जानते हैं दोनों के खासियतों के बारे में

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बॉन्ड और एफडी में अंतर

क्या है एफडी और बॉन्ड?

एफडी पर गारंटीड रिटर्न मिलता है। इसमें जमा पर तय दर से निश्चित अवधि तक ब्याज का लाभ मिलता है। बैंक, पोस्ट-ऑफिस और नॉन-बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनियां अलग-अलग ब्याज दर वाली एफडी स्कीम पेश करती हैं। मैच्योरिटी पर निवेशकों को ब्याज और निवेश रकम दोनों हासिल होते हैं। इसके अलावा मैच्योरिटी से पहले एफडी अकाउंट से निकासी की जा सकती है। इस तरह की निकासी पर पेनाल्टी लगती है। वहीं बांड एक डेट इंस्ट्रूमेंट है। फंड जुटाने के लिए सरकार और निजी कंपनियां बांड पेश करती हैं। 

कहां होगी अधिक कमाई?

एफडी पर मिलने वाली ब्याज आम तौर पर कम होती हैं। जोखिम से बचने वाले निवेशकों के लिए एफडी को एक सुरक्षित विकल्प माना जाता है। एफडी पर एक तय ब्याज दर मिलता है, लेकिन बॉन्ड की यील्ड जारी करने वाले की क्रेडिट रेटिंग और बाजार की स्थितियों के आधार पर अलग-अलग होती है। निवेश के लिए बॉन्ड भी एक बेहतर विकल्प हैं, एफडी के मुकाबले बांड पर अच्छे रिटर्न मिल जाते हैं, खासकर उन निवेशकों को जो जोखिम भरे विकल्प में भी पैसे लगाने में दिलचस्पी दिखाते हैं। 

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कब मिलेगा इंटरेस्ट?

एफडी में ब्याज मुख्य रूप से दो तरीके से मिलते हैं। एक संचयी यानी कुमुलेटिव (cumulative) और दूसरा गैर-संचयी विकल्प यानी कुमुलेटिव (non-cumulative)। अगर कोई निवेशक गैर-संचयी डिपॉजिट चुनता है, तो उसे ब्याज का भुगतान मंथली, तिमाही या मैच्योरिटी पर किया जाता है। वहीं कुमुलेटिव डिपॉजिट पर ब्याज त्रैमासिक रूप से कंपाउंडेंड होता है और मैच्योरिटी पर भुगतान किया जाता है।

वहीं बांड के मामले में, बॉन्ड लेकर आने वाली संस्थाएं या सरकारे एक विशिष्ट अवधि के लिए निवेशकों से पैसा उधार लेते हैं, जिसके दौरान वे नियमित ब्याज भुगतान (मासिक, तिमाही या सालाना) करते हैं। जब बांड मैच्योर होता है, तो निवेशकों को वह वापस मूल रकम मिल जाती है जो उन्होंने बॉन्ड (सरकारी या कंपनी से) खरीदते समय लगाया था।

क्रेडिट रेटिंग के क्या हैं मायने?

एफडी और बांड की ब्याज दरें तय करने में क्रेडिट क्वालिटी एक अहम फैक्टर है। मिसाल के लिए, AAA रेटिंग वाले बैंक के स्कीम में लगाए गए पैसे सुरक्षित होते हैं। हायर रेटिंग वाले बैंक के स्कीम में सबसे कम क्रेडिट रिस्क होता है। इसका मतलब है कि इसमें मैच्योरिटी पर ब्याज के साथ एफडी रकम वापस मिलने की संभावना अधिक है। वहीं SEBI के साथ पंजीकृत क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों जैसे CRISIL, ICRA और CARE द्वारा जिन बॉन्ड को कम क्रेडिट रेटिंग मिली होती है वे बॉन्ड हायर डिफॉल्ट रिस्क के साथ आते हैं और इस तरह के बॉन्ड उ निवेशकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं जो जोखिम भरे विकल्प में भी पैसे लगाने में दिलचस्पी दिखाते हैं।

ऐसे में निवेश से पहले लोगों को रिसर्च करने की सलाह दी जाती है। एफडी और बॉन्ड, दोनों विकल्पों में निवेशकों को यह याद रखना चाहिए कि एफडी के उलट बांड जारी करने वाली संस्था की साख के आधार पर रिस्क लेवल अलग-अलग होते हैं। मौजूदा समय में आईटीआर दाखिल करने का सीजन चल रहा है और करदाता अपने टैक्स की गणना कर रहे हैं। बता दें कि एफडी और बांड दोनों निवेशकों को टैक्स बचाने में मदद कर सकते हैं।