ओलंपिक में कमाल की उपलब्धि और देश का सिर ऊंचा करने के लिए हमें दीपा कर्माकर, साक्षी मलिक और पीवी सिंधू पर गर्व है। हम उन्हें, उनके कोचों और उनके परिवार को बधाई देते हैं। स्पांसर्स तथा राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा उनपर, खासकर सिंधू पर पैसों की बारिश की जा रही है। ऐसा लगता है जैसे मुख्यमंत्रियों के बीच इस बात की होड़ मची है कि कौन ज्यादा धनराशि देगा। यहां तक कि दिल्ली सरकार- जिसका उनकी उपलब्धि में निश्चित तौर पर कोई रोल नहीं है, भी किसी से पीछे नहीं रहना चाहती। बात यह है कि क्या उनका सम्मान करने का कोई बेहतर रास्ता नहीं है? जहां न सिर्फ उनकी उपलब्धियों को याद रखा जाता, बल्कि आने वाले प्रतिभाशाली नौजवान भारतीयों को एक मौका दिया जाता, जो शायद इंफ्रास्ट्रक्चर और वित्तीय सहायता की कमी की वजह से कभी पोडियम तक न पहुंच पाएं। राज्यों के मुख्यमंत्री मेडल्स जीतने वाले एथलीट्स पर करोड़ों रुपए बरसा रहे हैं। आखिर वे किसका पैसा खर्च कर रहे हैं? क्या वह पैसा टैक्सपेयर्स का नहीं है? क्या टैक्स पेयर्स को बेहतर खेल व अन्य सुविधाएं नहीं मिलनी चाहिए जो कि उन्हें धन की कमी की वजह से नहीं मिल पातीं।
जरा राष्ट्रीय स्तर की एक हैंडबाल खिलाड़ी के दुखदायी अंत को देखिए। पटियाला खालसा कॉलेज में पढ़ रही पूजा ने कथित तौर पर फ्री हॉस्टल की सुविधा न मिलने से आत्महत्या कर ली थी। जबकि उसे मुफ्त हॉस्टल और खाना दिए जाने का वायदा किया गया था। अपने सुसाइड नोट में प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए उसने दिखा कि वह अपनी जान इसलिए दे रही है क्योंकि वह अपनी हॉस्टल फीस और यात्रा का खर्च नहीं उठा सकती। पूजा ने प्रधानमंत्री से गुजारिश की थी उसके जैसी असहाय लड़कियों को मुफ्त शिक्षा की सुविधा मिलनी चाहिए। बिना फ्री हॉस्टल मिले इस लड़की के लिए वित्तीय तौर पर अपने कॉलेज जा पाना संभव नहीं था।
मुझे यकीन है कि ऐसी हजारों पूजा हैं, जिन्हें अगर मौका मिले तो वे न सिर्फ खेलों, बल्कि अन्य चीजों में भी शानदार प्रदर्शन करेंगी और देश का नाम रोशन करेंगी। हरियाणा के एक दूधवाले के 12 वर्षीय बेटे शुभम जगलान का उदाहरण देखिए। जो सैन डिएगो, अमेरिका में हुई चैंपियनशिप जीतने के बाद विश्व का नंबर एक जूनियर गोल्फ चैंपियन बन गया है। इस नौजवान प्रतिभा के पास टूर्नामेंट की जगहों तक जाने का पैसा नहीं था। अगर उसे इंडियन गोल्फ फाउंडेशन का साथ नहीं मिला होता, तो शुभम की प्रतिभा कहीं खाे जाती और फिर कभी नहीं मिलती। मुझे कोई शक नहीं कि वह आने वाला टाइगर वुड्स है और एक बार वह नाम कमा ले, तो सभी मुख्यमंत्री और कॉर्पोरेट्स लाइन में लगकर उसके ऊपर पैसों की बारिश करेंगे। तब शायद उसे पैसों की उतनी जरूरत नहीं होगी, जितनी आज है।
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1.3 बिलियन की जनसंख्या के साथ, क्या हमें सिर्फ दो मेडल्स (गोल्ड शामिल नहीं) जीतने पर ही इस तरह पागल हो जाना चाहिए? कम से कम एक मेडल जीतने वाले 87 देशों में भी भारत का स्थान 67वां हैं। यहां तक कि मंगोलिया ने भी दो मेडल- एक रजत और एक कांस्य जीता। अमेरिका मेडल टैली में 121 मेडल्स के साथ सबसे आगे रहा। कम कोसोवो से भी पीछे हैं जिसकी जनसंख्या महज 18 लाख है और 4,212 मील क्षेत्रफल है। 9.4 मिलियन की जनसंख्या वाला अजेरबाइजान एक स्वर्ण और सात रजत समेत 18 मेडल जीता। जब अमेरिका 121 मेडल जीता तो अमेरिकी राष्ट्रपति ने टीम अमेरिका को बधाई दी, न कि सिर्फ माइकल फेल्प्स को जिन्होंने सबसे ज्यादा गोल्ड मेडल्स जीते।
टीम वर्क के बिना, व्यक्तिगत प्रतिभा नहीं निखर सकती। युवा भारतीयों में जोश है, क्षमता है और मेडल जीतने की प्रतिभा है लेकिन बिना टीम वर्क के यह सिर्फ व्यक्ति विशेष की जीत बनकर रह जाएगी। दीपा कर्माकर, साक्षी मलिक और सिंधू आज जहां हैं, वहां तक पहुंचने के लिए हर मुसीबत से लड़ी हैं। वे यहां खेल मंत्रालय की बदौलत नहीं, शायद उसके बावजूद हैं। इसलिए सवाल उठता है- क्या हमें वाकई खेल मंत्रालय की जरूरत है? मंत्रालय को चलाने के करीब 1,600 करोड़ रुपए के बजट को सीधे पब्लिक स्पोर्ट्स इंफ्रास्ट्रक्वर बनाने और प्रतिभाशाली मगर गरीब नौजवान भारतीयों को मुफ्त शिक्षा और सुविधाएं देने में क्यों नहीं खर्च किया जाए?
“जय हिंद”
लेखक तृणमूल कांग्रेस के सांसद हैं और भारत सरकार के रेलमंत्री रह चुके हैं।