कुछ साल पहले तक फ़िल्मों में नायिकाएं एक ही ढर्रे पर चला करती थीं। फ़िल्मों में औरत का किरदार या तो आंसू बहाने के लिए रखा जाता था… या फिर पेड़ों के इर्दगिर्द नाचने गाने के लिए। ज्यादातर फ़िल्मों की कहानियां नायकों के इर्दगिर्द ही घूमती थीं। लेकिन वक्त के साथ साथ फ़िल्मकारों का नज़रिया बदला है और साथ ही बदल गए हैं फ़िल्मों में औरत के हालात भी।
नारी, मायानगरी के फ़िल्मकारों की प्रेरणा… कभी मां, कभी पत्नी तो कभी प्रेमिका… रूप चाहे जो भी हो, लेकिन वो औरत ही है, जो नायक को ना सिर्फ जीने की वजह देती है, बल्कि वक्त पड़ने पर खुद मुश्किल से मुश्किल हालात का सामना करने के लिए बहादुरी से खड़ी हो जाती है। हिन्दी सिनेमा ने सौ सालों में नारी के कई रूप सामने रखे। समाज में महिलाओं की हालत में जैसे जैसे बदलाव आता गया, फ़िल्मों में भी उसका असर देखने को मिला… एक वक्त था, जब बॉलीवुड में नायिका खुद ही अपने आपको नायक से कमतर करके आंकती थी।
1962 में आई फ़िल्म की नायिका पढ़ी लिखी नहीं थी। ज़ाहिर है, उसके ना पढ़ पाने के पीछे हालात ज़िम्मेदार थे, ना कि खुद नायिका, बावजूद उसके नायक से उसे दुत्कार ही मिलता रहा… और जब नायक ने उसके संग प्यार से बात की, तो नायिका को ये किसी अहसान से कम नहीं लगा.. उस दौर में विदाई के वक्त मां , अपनी बेटी को नसीहत देती थी कि ससुराल से औरत की अर्थी ही बाहर निकलती है..ज़ाहिर है, बेटी के सामने अपने पति को परमेश्वर मानने के सिवा कोई रास्ता ही नहीं था। फिर चाहे पति कैसा भी क्यों ना हो… शादी से पहले मां-बाप का नियंत्रण, फिर पति और सास की निगरानी.. बुढापे में बेटों का सहारा…कुछ ऐसा ही था, फ़िल्मी औरत का हाल…
लेकिन वक्त बदला, ज़माना बदला और साथ ही बदल गया बॉलीवुड भी… जो औरत पहले खुद को मर्दों से कमतर समझती थी, अब अपने सर्वश्रेष्ठ होने का ऐलान करने लगी… आज की फ़िल्मों में अगर नायिका को शादी का रिश्ता मंज़ूर नहीं तो वो तनु वेड्स मनु की नायिका की तरह खुलेआम शादी से इंकार कर देती है… कई बार तो इंकार का अंदाज़ धमकी भरा होता है..
सजना है मुझे सजना के लिए जैसे गाने बताते हैं कि पहले नायिका का सुंदर होना ज़रूरी था…खुद फिल्मी नारी भी खुद को सजा संवार कर रखने में यकीन रखती थी, और भी अपने सजना के लिए..खुद के लिए नहीं… मेकअप आज की नारी को भी अच्छा लगता है, लेकिन सजना को रिझाने के लिए नहीं बल्कि खुद को सुंदर दिखाने के लिए..वैसे कई फ़िल्मों में तो हीरोइन को सजा संवार कर पेश भी नहीं किया जाता..
बदलते वक्त के साथ फ़िल्मी नारी का प्रोफेशन भी बदला है..पहले या तो वो हाउस वाइफ़ होती थी या फिर टीचर या ज्यादा से ज्यादा डॉक्टर… लेकिन आज कल की फ़िल्मों में नारी.. कॉरपोरेट लीडर से लेकर जर्नलिस्ट तक और पुलिस ऑफ़ीसर से लेकर एक्शन करने वाली जासूस तक का किरदार धड़ल्ले से निभा रही है…
विलेन के अड्डे पर पहले भी औरतें होती थीं, लेकिन सिर्फ कैबरे करने के लिए या फिर बॉस के बगल में बैठकर खूबसूरती बढ़ाने के लिए… लेकिन आज की फ़िल्मों में औरत गैंगस्टर भी है और गैंग लीडर भी… वो ज़माना गया, जब फ़िल्मों में किसी लड़की पर जिसका दिल किया उसी ने कंमेट पास कर दिया.. और बेचारी लड़की नज़रें नीची कर निकल गई… आज की फ़िल्मी लड़की को कोई छेड़ के तो देखे… नतीजा कुछ ऐसा होगा.. चक दे इंडिया का वो सीन याद है ना जहां लड़कियों की हॉकी टीम ने रेस्त्रां लफंगों की जमकर धुनाई कर दी थी…
ज़ाहिर है सौ सालों में भारतीय समाज की ही तरह भारतीय सिनेमा में भी औरतों की स्थिति मज़बूत हुई है.. चाहे फ़िल्मी गर्लफ्रेंड हो या बीवी या फिर मां..बदलते वक्त के साथ सबके अंदर एक पॉजीटिव चेंज आया है, जो यकीनन स्वागत के योग्य है…