उसकी आखिरी ख्वाहिश
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कई दिनों से रूठी कविता
चली आई आज मेरे द्वार,
दस्तक देकर कहा मुझसे-
कितनी देर से
कर रही हूं इंतजार
शृंगार नहीं करोगे मेरा?
क्या मेरे अधरों पर
फिर से नहीं रखोगे
वही लाल गुलमोहर।
स्नान कर कब से खड़ी हूं
जरा तुम मेरे
गोरे बदन को पोंछ दो,
पहना दो वही मेरी
प्रिय लाल परिधान,
आज दुलहन की तरह
मुझे सजा दो।
मेरे झुमके तो
तुम्हारी जेब में पड़े हैं
जो उतार लिए थे
तुमने कल रात में,
उन्हें डाल दो कानों में।
टेबल पर जो पड़ी हैं न
हरी-हरी चूड़ियां
उसे भी मेरी कलाइयों में
हौले से पिरो दो।
मेरा शृंगार करते हुए
किस सोच में पड़ जाते हो,
संकोच किस बात का
इधर तो आओ
जरा बांध दो
अंगिया की रेशमी डोरी
और जमा दो कमरबंद भी।
अब जरा बैठ जाओ,
थक गए होगे तुम
मेरा शृंगार करते हुए,
देखो न
कमर से फिसल रही है साड़ी
जरा सलवटें ठीक कर दो
और बांध दो पायल भी।
जो गजरा लाए थे न
तुम मेरे लिए,
उसे मेरी लंंबी जुल्फों पर
डाल दो और
इन लटों को भी संवार दो।
मेरे संग ब्रह्मांड की
सैर करते हुए तुम
अपनी मुट्ठी में जो
सितारे तोड़ लाए थे न,
उसे मेरे माथे पर रख दो
चंमकती बिंदी की तरह।
रात की सहचरी से
मांग लो काजल भी
उसे मेरी पलकों के नीचे
तीखे से कोर पर रख दो
इतना तो कर दोगे न तुम।
सुनो-
एक आखिरी ख्वाहिश पूरी दो
अब जरा और करीब आओ
वैसे नही जैसे
स्त्री को भींच लेता है कोई पुरुष,
मित्र की तरह गले लगाओ
और मेरी सांसों में उतर जाओ
मैं तुम्हारी आंखों में
निस्पृह प्रेम देखना चाहती हूं।
अब अपने लबों से
मेरे ललाट को चूम लो
और मेरी आंखों में
कुछ नए सपने सजा दो,
लो हो गया शृंगार मेरा।
अच्छा मैं चलूं या
या कागज पर उतर आऊं
अब तो लिखोगे न
याद करोगे न मुझे…।
– संजय स्वतंत्र