पिछले दिनों दिल्ली सरकार की साहित्य कला परिषद और कला, संस्कृति व भाषा विभाग ने नई दिल्ली नगर पालिका के सहयोग से नेहरू पार्क में भक्ति संगीत नामक त्रिदिवसीय उत्सव आयोजित किया। कार्यक्रम में अनुराधा पौडवाल के लोकप्रिय भजनों से लेकर भुवनेश कोमकली के निर्गुण भजन और वारसी बंधुओं की कव्वाली, कुमुद दीवान के राधा-माधव, शुभा जोशी के मराठी अभंग और लोक परंपरा के भक्तिगीत, नितिन शर्मा और हर्षदीप के पंजाबी सूफी से लेकर उदय भवालकर के ध्रुपद, डा. शोभा राजू के राम-भजन और पं. छन्नू लाल मिश्र के कथावाचन तक की विविधता दिखीं।
भुवनेश कोमकली के निर्गुण भजनों ने उनके पितामह पं. कुमार गंधर्व की निर्गुण गायकी की याद ताजा कर दी। विदुषी वसुंधरा कोमकली व पं. मधुप मुद्गल के शिष्य भुवनेश को इस गायकी का सत्त्व गुरु शिष्य परंपरा से अक्षत रूप में मिला है। अच्छी तालीम और समझ बूझ से किए गए रियाज ने उनकी आवाज और अंदाज में भी वही सुरमयता कयम रखी है। इसका अंदाजा उनके तानपुरों के निनाद से ही हो गया था। अपने प्रथम षडज संधान से ही उन्होंने श्रोताओं की चेतना पर दस्तक दे डाली थी। ‘युगन युगन हम जोगी’ और ‘शून्य गढ़ शहर..’ से लेकर ‘उड़ जाएगा पंछी अकेला, जग दर्शन का मेला..’ तक उनकी मर्मभेदी आवाज लोगों के दिल में उतर गई। हारमोनियम पर श्यामसुंदर भट्ट, तबले पर ज्ञान सिंह और मंजीरे पर ज्ञान सेठी का भी बराबर का सहयोग था।
हैदराबाद से आए वारसी बंधु नजीर अहमद वारसी और नसीर अहमद वारसी की कव्वाली और उसके साथ सैयद हबीब की ठनकती हुई ढोलक और जब्बार अहमद के धाकड़ तबले ने ‘मन कुंतो मौला’ से ही समां बांध दिया। और देखते ही देखते सारा हुजूम उनकी तालियों में शरीक हो गया। फिर तो इश्क मजाजी से मामला इश्क हकीकी की ओर मुखातिब हो लिया और हलके फुल्के अशआर से उन्होंने महफिल में अपनी पैठ बना ली।
भक्ति संगीत को एक बार वापस आध्यात्मिक ऊंचाइयों पर पहुंचाया पं. उदय भवालकर के ध्रुपद गायन ने। उन्होंने गाने से पहले अपने श्रोताओं को बताया कि ध्रुपद की आलाप तो अपने आप में ही भक्ति है क्योंकि वह ‘ओम अनंत हरी नारायण’ मंत्र से निर्मित है। भक्ति शब्द ही नहीं स्वर से भी होती है। उन्होंने कहा कि दरअसल शृंगार और भक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भक्ति मन की अवस्था है। आप उसे हलके अंदाज में लें तो लौकिक है और गंभीरता से लें तो पारलौकिक है। इसके बाद उन्होंने राग मधुवंती में सुविस्तृत आलाप सहित चौताल में ध्रुपद ‘तू भज रे मन कृष्ण’ इत्मीनान से गाया। भवालकर ने राग दुर्गा में तुलसीदास का पद ‘मैं हरि पतित पावन सुने’ गाकर सूलताल के ध्रुपद ‘दुर्गे भवानी’ से अपना गायन संपन्न किया।
पं. छन्नू लाल मिश्र ने रामचरित मानस से केवट प्रसंग पूरी भक्तिमयता से सुनाया। गायन के बीच बीच में अपने सरस कथावाचन से भी वह श्रोताओं को वश में किए रहे। लेकिन अंतत: भक्ति संगीत को तिलांजलि देकर वह तरह-तरह की फरमाइशें पूरी करने के मोहजाल में उलझ गए।