सांत्वना श्रीकांत की कविताएं
मौन में पलाश
————–
निर्जन वन की तरह
मेरे नग्न पीठ पर
पलाश की तरह
दहक रहे हो तुम,
महसूस कर सकती हूं तुम्हें।
मेरे पीठ पर पक रही है
हमारे प्रेम की फसल
और उस पर अलिंगन की
आंच फैला कर
अस्त हो रहा है सूर्य।
सुहागन के आलते जैसा
पावन है तुम्हारा
हर एक स्पर्श।
यह पलाश-
जो तुम्हारे चुंबन से
उग आया है न मेरे पीठ पर
बड़ी शीघ्रता से
झर जाएगा एक दिन,
अगले बसंत के इंतजार में
खड़ा रहेगा मौन
मगर तुम मुझमें
दहकते रहना
पलाश की तरह।
प्रार्थना में उठे हाथ
—————-
सब कुछ बेमानी लगता है
जैसे वक्त के साथ
भूल जाती है
कभी स्पर्श तक
ना भूल पाने वाली प्रेमिका,
अपने प्रेमी के घर का पता।
आत्मा और शरीर
बन चुके युगल
विलग अपनी-अपनी
जिंदगियों में प्रेम से परिपूर्ण हैं।
मृत्यु ले जाती है शरीर
उसी दिन उलाहना में करते हैं
अपने सच्चे प्रेम का इंतजार
कि निश्छल भाव से कोई
उसका भी करेगा प्रतीक्षा।
कांपते होंठ नहीं देंगे झूठी दिलासा,
दरअसल तब शायद
प्रार्थना में उठे हाथ
ईश्वर से अमर प्रेम का
साक्ष्य जमा कर लें।