फिर भी पर्याप्त हूं तुम्हारे लिए
मुझसे प्रेम करने का
अधिकार किसने दिया तुम्हें?
मैंने कहा था न बार-बार,
ख्वाबों के टूटन के सिवा
कुछ भी नहीं मिलेगा।
तुम्हारे भीतर बैठा बेचैन
पुरुष जोड़ता रहता है
खामोशियों की किरचियां।
उसी ने कहा होगा-
इश्क करो,
तुम लिखते रहे और
कागज पर बहती रही नदी।
मैंने पढ़ा और फिर
फाड़ दिए कागज।
वो नदी बह गई
अपने सागर से मिलने,
तुम क्यों करते रहे
मेरा अनंत इंतजार।
खंडहरों के बीच से
ये जो रोशनी आती है न
झूठी उम्मीदों की,
उसमें अकसर तुम
अपनी प्रेयसी की परछाई
ढूंढ लेते हो
यह जानते हुए भी कि
वह मात्र छाया है।
क्या भूल गए तुम?
तुम्हें इश्क है लिखने से
दीवारों से, उस एकांत से……
जहां मैं आती हूं तुम्हारे लिए।
तुम्हें प्रेम है शब्दों से
जिसे तुम अर्पित कर देते हो
उस नदी को,
जो रुकी ही नहीं तुम्हारे लिए।
कागजों पर क्यों उतार देते हो
मुझे बार-बार,
स्वाभाविक था
तुम्हें मुझसे इश्कहोना,
क्योंकि मुझे भी था प्रेम
तुम्हारे लिखने से,
तुम्हारे भीतर दरक गई दीवारों से,
अपने उस एकांत से
जहां तुम बेखटके चले आते थे,
लेकिन नदी तो बह गई……।
कभी-कभी सोचती हूं
कि तुम बुद्ध बन जाते
तो कितना अच्छा था,
मालूम है कि अप्राप्य हूं
फिर भी पर्याप्त हूं मैं तुम्हारे लिए।
बुद्ध से ही तुम मेरी कविताओं
के शीर्षक बनते हो,
मैं उकेरना चाहती हूं
सिद्धार्थ की भावनाएं
मैं जगाना चाहती हूं
अनंत अंधकार में सदियों से खोई
यशोधरा का निश्छल प्रेम।
तुम मुझे ढूंढना,
मैं वहीं मिलूंगी।