सांत्वना श्रीकांत
किताबों की दुनिया से
निकल कर अब
उड़ना चाहती हूं,
चहकना चाहती हूं
जैसे चहकती है
लाल पंखों वाली चिड़िया
अमलतास के पेड़ पर
ओढ़ लेना चाहती हूं
फूलों का पीला रंग-
दुनिया की उदासी
लील जाने के लिए।
स्मृतियों में डूब कर
बन जाना चाहती हूं बर्फ
ताकि पिघल जाऊं मैं
तुम्हारी हथेलियों पर
और सोख लूं
तुम्हारी धमनियों में बहता प्रेम
तथा भावनाओं की ऊष्मा।
रुदन करना चाहती हूं,
बिलखना चाहती हूं
अबोध बच्ची की तरह
तुम्हारे कंधे पर सिर रख
ताकि तुम दुलार दो
मेरी मां बन कर।
जैसे गर्भिनी गढ़ती है
अपने शिशु को प्रतिपल
वैसे ही अपनी कोख में
रखती हूं तुम्हें
ताकि लौटा सकूं
इस दुनिया को प्रेम,
आलिंगन में लेना चाहती हूं
इस सभ्यता को
इसके अवसान से पहले,
ठीक वैसे ही जैसे
कोई कुपोषित मां
सहस्त्र मृत्यु से पहले
जन्म देती है और
स्पर्श करती है
अपने नवजात को,
जिसके मन में
नहीं धरा होता अभिमान
जिसकी आंखों में नहीं होती
स्त्रियों के प्रति दुर्भावना,
वह देखता है सबको निर्विकार,
जिसके दिमाग में
नहीं पलती कोई साजिश
उस शिशु जैसा मनुष्य
रचना चाहती हूं।
आओ तुम-
इंसानों की दुनिया रचने को
मैं ग्रहण करती हूं तुम्हें
शाश्वत काल के लिए।