1. समाज के स्याह पक्ष के दुष्प्रभावों से उपजने वाली पीड़ा को शब्दों से अभिव्यक्ति देना कवि-कर्म का सबसे जरूरी उत्तरदायित्व होता है। अपने इसी उत्तरदायित्व के हवाले से सांत्वना श्रीकांत अपनी कविता ‘उठो द्रौपदियों ‘ के माध्यम से देश की हर ‘द्रौपदी’ को ‘श्रीकृष्ण’ का आश्रय छोड़ अपने स्वाभिमान की सुरक्षा स्वयं करने का आह्वान करती हैं। सांत्वना श्रीकांत पेशे से डॉक्टर हैं और फिलहाल सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रही हैं। आइए, पढ़ते हैं एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दे पर लिखी उनकी कविता –

उठो द्रौपदियों

पूरे कपड़े तो पहने थे मैंने-
सलवार-कमीज,
और दुपट्टा भी था
अपनी जगह पर,
घर की तरफ थे कदम।
गिरा के मुंह के बल
फाड़ दिए थे मेरे कपड़े।
शरीर ही नहीं सपने भी
कर दिए विदीर्ण।
सिसकियां भी न निकलें,
धर दबोचा था
ऐसे मेरे मुंह को।
सिहर भी नहीं पा रही थी मैं
दरिंदे खुरच रहे थे
ऐसे मेरी देह।
आग बुझा कर अपनी
मरा समझ फेंक दिया था मुझे।
दहशत से कांप रही है
अब भी मेरी रूह।
डरी हुई हैं औरतें-लड़कियां
और संभ्रांत नागरिक भी।
चुप हैं सभी,
हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं।
उठो द्रौपदियों,
कान्हा नहीं आएंगे
अब तुम्हें बचाने।
उठा लो शस्त्र और
रक्षा करो अपने स्वाभिमान की।

2. विश्वस्तरीय आयोजनों में अभिनेत्रियों के परिधानों की कीमत मीडिया की रौनक बनी हुई है, लेकिन इन सबसे इतर सिग्नल पर एक लड़की है जिसके पास कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा है जिसमें उसका और उसकी गुड़िया दोनों का बदन ढंकता है। इस कपड़े की कीमत अभिनेत्रियों के मंहगे परिधानों पर भारी है। पढ़िए इसी भाव के इर्द-गिर्द बुनी ये कविता-

ट्रैफिक सिग्नल पर वो लड़की
कुछ दिनों से सुन रही हूं मैं
कि
कनास में होड़ लगी है
कैमरों के बीच
नायिकाओं के ज़री वाले
अंगरखों को कैद करने की।
तभी मेरी नजर पड़ी
चौराहे पर कोने में बैठी
उस लड़की पर,
जिसको उसकी मां
सिग्नल रेड होते ही
सड़क पर रुके लोगों से
कुछ खाने के लिए दे दो
कहने के लिए बोलेगी।
वो लड़की जो लोटे में गुड़िया
का सिर डाल कर नहला रही है।
न उसके पास
तन ढकने को कपड़े हैं
और न उस गुड़िया के लिए।
नहीं पता मुझे
कनास में पहने जाने वाले
ज़रीदार कपड़ों का मोल,
जिनकी वजह से टीवी चैनल
और अखबार की खबरों
या फिर ट्विटर पर
रोचकता आ गई है।
कम ही होगा इसका महत्त्व
इस लड़की और
उसकी गुड़िया के
कपड़े के टुकड़े से,
जिनमें दोनों का बदन ढक जाए।

सांत्वना श्रीकांत