1. पुरुष

जिजीविषा मुझमें तुम्हारे कारण,
बंधनों से मुक्त समर्पण
तुमसे ही, तुम्हारे कारण,
कल्पनाएं मेरी
अविरल नदी सी,
बहती तुम सागर में मिलती।
सुनो मेरे पुरुष..
बिछोह से घबराती
शून्य से तुम्हारे भावों में
टोह लगाए हुए,
शृंगार में ढूंढ़ती,
सुनो मेरे पुरुष
सुन रहे हो न तुम!
स्वीकारा है मेरे नारीत्व ने
तुम्हारा पुरुषत्व,
मैं दासी नहीं, स्वामिनी हूं
इस पुरुषत्व की।
भूलना नहीं तुम यह,
तुम्हारा ये पौरुष है न,
यह मेरी वजह से ही है,
सुनो मेरे पुरुष..
आलिंगन की बाट जोहती,
स्वयं ही सौंदर्य निहारती।
कभी तो बदलेगी
तुम्हारे भावों की मुद्राएं।
तुम नहीं समझोगे,
मेरे ब्रह्मांड का,
आदि और अंत तुम ही।
अतिशयोक्ति नहीं है यह,
सुनो मेरे पुरुष..
तुम्हारी हथेलियों की गरमाहट में
पिघलता है मेरा यौवन।
पूछता है-
कब तुम सीमाएं लांघ कर,
मुझमें मिल जाओगे।
कब होगी स्तब्धता मेरी चंचल,
कब होगी मेरी अधरों की
तृषा निवृत्त।
सुन रहे हो न तुम..

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2. सपने में आते हैं पिता

पिता की ढीली सी
स्वेटर पहन कर मैं अभी
महसूस कर रही हूं उन्हें,
बिल्कुल नरम उनके अंतस जैसी,
मानो हर धागे में गुंथा है
उनका निर्मल-तेजस स्पर्श।
कभी थपकियां देता है,
तो कभी बचा लेता है मुझे
सर्द हवाओं के थपेड़ों से।
दरअसल,
आजकल नहीं आते वो
दबे दबे पांव यह देखने
कि-
मैं सोई हूं या कि जाग गई हूं
कोई बुरा स्वप्न देख कर
या बुन रही हूं अपने लिए
कोई सुनहरा ख्वाब।
मैं खुद-ब खुद
उनकी कोई कमीज पहन कर,
कभी कोई पुराना स्वेटर,
या फिर उनकी पुरानी घड़ी
बांध कर उनके पास चली जाती हूं।
या फिर दीवार पर टंगी
उनकी तस्वीर में
ढूंढ़ लेती हूं उन्हें।

सांत्वना श्रीकांत

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