मंदिर में ऐसी बहुत सी गतिविधियां होती हैं जिनका अपना-अपना धार्मिक महत्व है। जैसे मंदिर में प्रवेश करने से पहले सिर झुकाना, घंटी बजाना, हाथ जोड़ना और परिक्रमा करना। मंदिर में भगवान की मूर्ति के चारो तरफ घूमकर परिक्रमा की जाती है लेकिन कुछ मंदिरों में मूर्ति की पीठ और दीवार के बीच ज्यादा जगह न होने के कारण ऐसी स्थिति में मूर्ति के सामने ही गोल घूमकर प्रदक्षिणा की जाती है। माना जाता है कि मंदिर में परिक्रमा करने से सारी सकारात्मक ऊर्जा शरीर में प्रवेश कर जाती है जिससे मन शांत होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भगवान की मूर्ति जिस स्थान पर स्थापित होती है, उस स्थान के चारों तरफ कुछ दूरी तक दिव्य शक्ति का आभामंडल माना जाता है। जिस कारण वहां परिक्रमा करने से श्रद्धालु को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। इसलिए इन शक्तियों को प्राप्त करने के लिए भक्त को दाएं हाथ की ओर परिक्रमा करनी चाहिए। अत: भगवान की मूर्ति और मंदिर की परिक्रमा हमेशा दाहिने हाथ की तरफ से शुरू करनी चाहिए, क्योंकि मूर्तियों में उपस्थित सकारात्मक ऊर्जा उत्तर से दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। दाहिने का अर्थ दक्षिण भी होता है इसलिए परिक्रमा को प्रदक्षिणा भी कहा जाता है।

यहां इस बात की तो जानकारी मिल गई कि परिक्रमा का क्या महत्व होता है और इसके फायदे क्या है, लेकिन यह भी जानना उतना ही जरूरी है कि किस भगवान की कितनी बार परिक्रमा करनी चाहिए। सूर्य देव की सात बार परिक्रमा का प्रावधान है, तो वहीं भगवान गणेश की चार, देवी दुर्गा की एक, भगवान विष्णु और उनके सभी अवतारों की चार बार, हनुमानजी की तीन जब्कि शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करने का नियम है। शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करने के पीछे मान्यता है कि जलधारी को लांघना नहीं चाहिए। इसी वजह से जलधारी तक पंहुचकर परिक्रमा को पूर्ण मान लिया जाता है।

परिक्रमा के समय इस मंत्र का किया जाता है जाप: यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे।। इस मंत्र का अर्थ यह है कि जाने-अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाए। परमेश्वर मुझे सद्बुद्धि प्रदान करें।