11वीं सदी के दौरान प्रतिहार शैली में निर्मित इस मंदिर के बारे में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि अलवर के मौरागढ़ निवासी विजयराम के विवाह के काफी वर्षों तक संतान नहीं हुई थी तब विजयराम और उनकी पत्नी रामवती की शिव भक्ति से एक कन्या करमेती का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी विक्रमी संवत 1006 को हुआ। उन्हें ही नारायणी माता के नाम से जाना जाता है।
नारायणी मंदिर का निर्माण 11वीं सदी में प्रतिहार शैली से करवाया गया। मंदिर के गर्भगृह में माता की मूर्ति लगी हुई है। मंदिर के ठीक सामने संगमरमर का एक कुंड है। मंदिर के ठीक पीछे से एक प्राकृतिक जलधारा बहकर संगमरमर के कुंड में पहुंचती है। उस समय वहां पर राजा दुल्हेराय का शासन था और नांगल पावटा के जगीरदार ठाकुर बुधसिंह ने नारायणी माता के मंदिर की स्थापना कराई। उन्होंने पानी के कुंडों की स्थापना भी कराई। बाद मे अलवर नरेश जय सिंह ने पानी के कुंडों को बड़े आकार में परिवर्तित कर दिया और इसके बाद सेन समाज ने भी समय-समय पर कई जीर्णोद्धार कराए।
मंदिर के कुंड के पानी को लोग गंगा की तरह पवित्र मानते हे। लोग इस पानी को बर्तन में भरकर अपने घर भी ले जाते हे। वे पानी के कुंड मे स्नान भी करते हैं। मान्यता है कि स्नान करने से कई प्रकार के रोगों से मुक्ति भी मिल जाती है और पाप भी धुल जाते हैं। मंदिर में लोग दूर-दूर से दर्शन करने के लिए आते हैं और यहां पर भजन-कीर्तन करते है। यहां प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल एकादशी को नारायणी माता का मेला लगता है।
यद्यपि नारायणी माता का मंदिर सभी वर्गों के लिए और सम्प्रदायों के लिए श्रद्धा का स्थल है फिर भी सेन समाज के लोग इसे अपनी कुलदेवी मानते हैं। वर्तमान में यह स्थान अलवर जिले से दौसा की तरफ जाते समय विश्व प्रसिद्ध भानगढ़ किले से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह अलवर जिले से लगभग 80 किलोमीटर की दूर स्थित है।
जयपुर से यह मंदिर 90 किलोमीटर है और दौसा से 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। माताजी का भव्य मंदिर बना हुआ है। वहीं से एक जलधारा अनवरत रूप से निकल रही है और वह केवल तीन किलोमीटर तक ही बहती है। रहस्यमयी ढंग से पानी निकलने को लेकर यहां कई खोज हो चुकी हैं, लेकिन आज तक यह पता नहीं लगाया जा सका है कि यह पानी कहां से आ रहा है और कब तक आएगा।