भगवान श्रीकृष्ण ने इसी पर्वत को इंद्र का मान-मर्दन करने के लिए अपनी सबसे छोटी उंगली पर सात दिन तक उठाकर रखा था और सभी ब्रजवासियों की रक्षा इंद्र के कोप से की थी। तब से लगातार इसकी पूजा की जा रही है। लेकिन, ऋ षि पुलस्त्य ने इस पर्वत को तिल-तिल घटते जाने का श्राप दिया था।
एक पौराणिक कथा के अनुसार श्रीकृष्ण ने अपने अवतरण से पहले निज-धाम चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन और यमुना नदी को पृथ्वी पर भेजा था। गोवर्धन भारत के पश्चिम प्रदेश के शालमली द्वीप में द्रोण पर्वत के पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए थे। एक समय तीर्थ यात्रा करते हुए ऋ षि पुलस्त्य गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचे तो इसकी सुंदरता देखकर वे मंत्रमुग्ध हो गए।
उन्होंने गोवर्धन जनक द्रोण पर्वत से निवेदन किया कि वे काशी में रहते हैं। आप अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दीजिए, मैं उसे काशी में स्थापित कर वहीं रहकर इसकी पूजा करूंगा। ऋ षि का अनुरोध सुनकर द्रोण पर्वत अपने पुत्र गोवर्धन के लिए दुखी हो उठे, लेकिन गोवर्धन पर्वत ने ऋ षि से कहा कि मैं आपके साथ चलूंगा, लेकिन मेरी एक शर्त है। आप मुझे जहां भी रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा।
पुलस्त्य ने गोवर्धन की यह बात मान ली। यह जानकर गोवर्धन ने ऋ षि से कहा कि मैं दो योजन ऊंचा और पांच योजन चौड़ा हूं। आप मुझे काशी कैसे ले जाएंगे? पुलस्त्य ने कहा कि मैं अपने तपोबल से तुम्हें अपनी हथेली पर उठाकर ले जाऊंगा। रास्ते में ब्रज भूमि आई। उसे देखकर गोवर्धन सोचने लगे कि भगवान श्रीकृष्ण यहां बाल्यकाल और कैशौर्यकाल की बहुत सी लीलाएं करेंगे। अगर मैं यहीं रह जाऊं तो उनकी लीलाओं को देख सकूंगा।
यह सोचकर गोवर्धन पर्वत पुलस्त्य ऋषि के हाथों में और अधिक भारी हो गया। इससे, ऋ षि को विश्राम करने की आवश्यकता महसूस हुई तो वे गोवर्धन पर्वत को जमीन पर रखकर विश्राम करने लगे। ऋ षि यह बात भूल गए थे कि उन्हें गोवर्धन पर्वत को जमीन पर रखना नहीं है। कुछ देर बाद ऋ षि पर्वत को वापस उठाने लगे तो गोवर्धन ने कहा कि ऋ षिवर अब मैं यहां से कहीं नहीं जा सकता। मैंने आपसे पहले ही आग्रह किया था कि आप मुझे जहां रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा। तब पुलस्त्य उसे ले जाने की हठ करने लगे, लेकिन गोवर्धन वहां से नहीं हिले।
आहत ऋ षि ने उन्हें श्राप दिया कि तुमने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं होने दिया है, अत: आज से प्रतिदिन तिल-तिल कर तुम्हारा क्षरण होता जाएगा और एक दिन तुम पूरी तरह धरती में समाहित हो जाओगे। तभी से गोवर्धन पर्वत तिल-तिल करके धरती में समा रहा है। माना जाता है कि कलयुग के अंत तक यह धरती में पूरी तरह विलीन हो जाएगा। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा होता था और अब यह 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋ षि के श्राप के कारण इस पर्वत की ऊंचाई लगातार कम होती जा रही है।
एक मान्यता यह भी है कि रामायण काल में जब राम सेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमान इस पर्वत को उत्तराखंड की ओर से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई कि सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह जानकर हनुमान इस पर्वत को ब्रज में ही स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए। वल्लभ संप्रदाय के वैष्णवमार्गी लोग इसकी परिक्रमा अवश्य करते हैं क्योंकि वल्लभ संप्रदाय में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की आराधना की जाती है जिसमें उन्होंने बाएं हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायां हाथ कमर पर है।
गौर से देखने पर पता चलता है कि पूरा कस्बा पर्वत पर बसा हुआ है, जिसमें दो हिस्से छूट गए हैं, उसे ही गिरिराज पर्वत कहा जाता है। इसके पहले हिस्से में जतीपुरा, मुखारविंद मंदिर व पूंछरी का लौठा प्रमुख स्थान है तो दूसरे हिस्से में राधाकुंड, और मानसी गंगा प्रमुख स्थान है। बीच में शहर की मुख्य सड़क है।
उस सड़क पर एक भव्य मंदिर हैं जिसमें पर्वत की शिला के दर्शन करने के बाद मंदिर के सामने के रास्ते से यात्रा प्रारंभ होती है। गोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर है और इसका परिक्रमा मार्ग लगभग 21 किलोमीटर लंबा है। इसे पूरा करने में पांच से छह घंटे का समय लगता है। यह पर्वत दो राज्यों, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में विभाजित है। कुछ दूर चलने के बाद राजस्थान वाले हिस्से में दाखिल होना पड़ता है।
गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्ण भक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं। परिक्रमा मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जतीपुरा, मुखारविंद मंदिर, राधा कुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं। गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिह्न हैं।
परिक्रमा की शुरुआत वैष्णवजन जतीपुरा से और सामान्यजन दान घाटी से करते हैं और पुन: वहीं पहुंच जाते हैं। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहां आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहां परिक्रमा करने आए हैं। पूंछरी का लौठा क्षेत्र राजस्थान में आता है। वैष्णवजन मानते हैं कि गोवर्धन पर्वत के ऊपर श्रीनाथ जी का मंदिर है। इस मंदिर में भगवान कृष्ण का शयनकक्ष है।
यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा तक जाती है। गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्त्व है। प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहां की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं। प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा पर यहां की परिक्रमा लगाने का विशेष महत्त्व है। श्रीगिरिराज पर्वत की तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधाना स्थली रही है। पर्वत को चारों तरफ से गोवर्धन कस्बा और कुछ गांवों ने घेर रखा है।