महन्त रविंद्र पुरी
जगदगुरु आदि शंकराचार्य ने ढाई हजार साल पूर्व सनातन धर्म की रक्षा के लिए दशनामी संन्यासी संप्रदाय की नींव डालकर जो परंपराएं स्थापित की थीं उनका दशनामी संन्यासी संप्रदाय आज भी पूरी शिद्दत से निर्वहन कर रहा है।

जगद्गुरुआदि शंकराचार्य ने देश की चारों दिशाओं में चार आध्यात्मिक पीठों की स्थापना की थी और दशनामी संन्यास परंपरा को दस संन्यासी नामों में विभक्त किया था और हर एक पीठ के साथ इन संन्यासी दशनामों को संबद्ध किया गया। दशनामी संप्रदायों के दस नामों को आदि शंकराचार्य ने गिरि, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम के 9 संन्यासी नाम प्रदान किए और दसवें नाम के रूप में गृहस्थ गोस्वामी नाम प्रदान किया जो समाज इसी दशनामी संप्रदाय से संबंधित हैं। सभी दशनामी प्रत्येक संप्रदाय स्थान विशेष और वेद से ताल्लुक रखते हैं। इनके शंकराचार्य, महंत, आचार्य महामंडलेश्वर महामंडलेश्वर हैं।

आदि शंकराचार्य ने बड़े ही लोकतांत्रिक रूप से इन दस नामों को शंकराचार्य की चारों पीठों से जोड़ा। सरस्वती, तीर्थ, अरण्य, भारती शृंगेरी शारदा पीठ तथा तीर्थ और आश्रम द्वारका पीठ से जोड़े गए जबकि गिरि, पर्वत, सागर-ज्योतिर्मठ बद्रीनाथ तथा वन, पुरी, अरण्य गोवर्धनपुरी मठ से संबद्ध किए गए। गिरि, पर्वत और सागर के ऋषि भ्रुगु के कुल से जुड़े हैं जबकि पुरी, भारती और सरस्वती के कुल ऋषि शांडिल्य हैं और वन और अरण्य ऋषि कश्यप के कुल हैं तथा तीर्थ और आश्रम के कुल ऋषि अवगत हैं। दशनामी संन्यासी परंपरा के सात अखाड़े हैं जिनमें श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा, श्री पंच अग्नि अखाड़ा, श्री पंचायती आह्वान अखाड़ा, श्री पंचायती निरंजनी अखाड़ा, श्री पंचायती आनंद अखाड़ा, श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा तथा श्री पंच शंभू अटल अखाड़ा शामिल है जो सभी शैव मत से संबंधित है।

दशनामी संप्रदाय से जुड़े साधु संत शास्त्र और शस्त्र परंपरा पारंगत होते हैं और धर्म की इनमें बहुत समझ होती है। साधुओं के इस समाज की सनातन धर्म में अत्यधिक प्रतिष्ठा है। दशनामी संन्यासी अदम्य साहस और कुशल प्रतिभाशाली नेतृत्व के धनी होते हैं। इस सम्प्रदाय के साधु भगवा वस्त्र धारण करते हैं और गले में रुद्राक्ष की माला पहनते हैं और अपने माथे पर चंदन का त्रिपुंड लगाते हैं और शरीर में राख मलते हैं। बहुत से नागा संन्यासी श्मशान साधना के लिए कपाल धारण करने के साथ-साथ श्मशान की राख से भी अपने शरीर का सम्मान करते हैं।

दशनामी संन्यासी संप्रदाय के साधु बाबा अभिवादन एक दूसरे का ॐ नमो नारायण से करते हैं। यह उच्च कोटि के तपस्वी साधु माने जाते हैं जो समाज को त्यागकर साधना में लीन रहते हैं। दशनामी संन्यासी परंपरा में हर अखाड़े का एक आचार्य महामंडलेश्वर होता है। दशनामी साधुओं में आचार्य महामंडलेश्वर,मंडलेश्वर और नागा पद होते हैं। उनमें भी शास्त्रधारी और शस्त्र धारी नागा साधु होते हैं। दशनामी सन्यास परंपरा में कुटीचक, बहूदक, हंस तथा परमहंस के अध्यात्म से जुड़े पद होते हैं जो दशनामी साधु संन्यासी ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं वे परमहंस कहलाए जाते हैं और उच्च कोटि के साधक माने जाते हैं।

कुंभ मेला में हर 6 साल बाद हर अखाड़े का लोकतांत्रिक पद्धति से पदाधिकारियों का चुनाव होता है जो अपने-अपने पदों पर कार्य करते हुए अखाड़ों की प्रशासनिक व्यवस्था का संचालन करते हैं। दशनामी संन्यास परंपरा से जुड़े साधुओं को उनके अलग-अलग अखाड़े उनकी योग्यता और वरिष्ठता को देखते हुए उन्हें विभिन्नन पदों पर आसीन करते है, श्री महन्त सचिव, कोठारी, कोतवाल, भंडारी आदि इनके पद होते हैं। सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण पद श्री महन्त का होता है और अखाड़ों की जमात के रमता पंच होते हैं जिन्हें अष्ट कौशल महन्त भी कहा जाता है अति महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।

(लेखक श्री पंचायती निरंजनी अखाड़ा के सचिव एवं श्री मनसा देवी मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष पद हैं)