पौष मास हिंदू पंचांग के अनुसार 10वां महीना है। पौष मास में भगवान सूर्य देव की पूजा-उपासना-आराधना का विशेष महत्त्व है। पौराणिक मान्यताएं है कि यदि पौष मास में सूर्य देव की आराधना की जाए तो श्रद्धालु को 11 हजार रश्मियों के साथ स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। इस पुण्य पवित्र मास में सूर्य देव की पूजा-अर्चना और उपासना करने से मनुष्य को मनोवांछित फल की प्राप्ति अभिलंब हो जाती है। इस मास में अत्यधिक सर्दी होती है, इसीलिए कहा गया है कि इस मास में गर्म वस्त्रों का दान करना पुण्य माना गया है।
इस मास में लाल और पीले वस्त्र पहनाने का विशेष महत्त्व है क्योंकि लाल वस्त्र सूर्य भगवान और पीला वस्त्र भगवान विष्णु का प्रिय है। इसीलिए इस मास में भगवान विष्णु और सूर्य भगवान की पूजा अत्यंत लाभदायक मानी जाती है। पौष मास में तांबे के बर्तन में जल भरकर और उसमें लाल चंदन और लाल फूल का मिश्रण करके उस जल से सूर्य भगवान को ‘ओम श्री सूर्य देवाय नम:’ पुण्य-पवित्र मंत्र का जाप कर अर्घ्य देने का विशेष महत्त्व माना गया है। इस मास में फलाहार व्रत करने का विशेष महत्त्व होता है। व्रत के दिन नमक का सेवन वर्जित माना गया है और सूर्यदेव को तिल और खिचड़ी का भोग लगाने का विशेष महत्त्व मानते है। हिंदू पंचांग के अनुसार महीने की पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी नक्षत्र से जोड़कर उस महीने का नाम रखा जाता है। पौष मास में चंद्रमा पूर्णिमा वाले दिन पुष्य नक्षत्र में स्थित होता है। इसीलिए इस महीने को पौष मास कहा गया है स्थानीय भाषा में इसे पूस का महीना भी कहते हैं।
उत्तराखंड और सूर्य मंदिर
उत्तराखंड में अत्यंत प्राचीन भगवान सूर्य के मंदिर विभिन्न क्षेत्रों में स्थित है, जिनका पौराणिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्व है। उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में अल्मोड़ा जिले में कटारमल के सूर्य मंदिर का पुरानी कार आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व माना गया है। कुमाऊं के लोग सूर्य देवता के इस प्राचीन मंदिर को बड़ादित्य के नाम से भी पुकारते हैं। यह अत्यंत प्राचीन मंदिर अपने स्थापत्य शिल्प में कोणार्क के सूर्य मंदिर से अत्यधिक समानता रखने वाला मंदिर माना जाता है। इस मंदिर को वृहद आकार की वजह से ही बड़ादित्य का नाम दिया गया है। ओड़ीशा के कोणार्क के सूर्य मंदिर की तरह ही इस मंदिर का निर्माण उसी शैली में किया गया है कि सूर्य की पहली किरण सीधे इसके गर्भगृह में प्रवेश करती है।
इस मंदिर में भगवान सूर्य की प्रतिमा आसनमुद्रा में विराजमान हैं। ऐसी मूर्तियां बहुत दुर्लभ मानी जाती हैं। इस मंदिर के दक्षिण दिशा में सूर्यकुंड स्थापित है। इस सूर्यकुंड में कभी शेषशैय्या पर विराजमान भगवान नारायण की एक प्रतिमा स्थापित थी जिसे आगे चलकर सूर्यकुंड से गर्भगृह में स्थापित कर दिया गया। इस प्राचीन सूर्यकुंड के जल से मंदिर के गर्भ गृह में स्थित आदित्यदेव की प्रतिमा का प्रतिदिन वैदिक विधि-विधान के साथ जलाभिषेक किया जाता है। अपनी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध यह सूर्य मंदिर नवीं शताब्दी में निर्मित किया गया था। इस मंदिर परिसर में विभिन्न आकारों व रूपों के 54 अत्यंत प्राचीन मंदिर स्थापित है, जिनके मध्य भगवान सूर्य देव का यह बड़ादित्य का देवालय स्थित है। वैसे तो उत्तराखंड में विभिन्न स्थलों में अत्यंत प्राचीन सूर्य मंदिरों की शृंखला स्थापित है।
इस देवभूमि के प्राचीन सूर्य मंदिरों में गढ़वाल मंडल के पलेठी का भानु-मंदिर का भी स्थापत्य कला और धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्त्व माना गया है। इसे सातवीं शताब्दी में बनाया गया था। यह मन्दिर गढ़वाल मंडल के टिहरी जिले के हिंडोलाखाल के नजदीक पुण्य-पवित्र भागीरथी नदी के तट पर स्थित है। इन सूर्य मंदिरों के अतिरिक्त कुमाऊं मंडल के अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ मार्ग पर काफलीखान के निकट धौलादेवी विकास खंड के पालो गांव में स्थित गुणादित्य नामक सूर्य मंदिर भी अपनी अष्टधातु की सूर्य प्रतिमा को लेकर अत्यधिक प्रसिद्ध है। यह दुर्लभ प्रतिमा 1982 में चोरी हो गई थी, उसे बाद में खोज लिया गया और इस समय यह प्रतिमा अल्मोड़ा के संग्रहालय में सुरक्षा की दृष्टि से रखी गई है।
गंगा और नदियों के संगम में स्नान का महत्त्व
पौष मास में गंगा नदी तथा नदियों के संगम में स्नान करने का विशेष महत्त्व है। टिहरी जिले के देवप्रयाग में भागीरथी नदी और अलकनंदा नदी के संगम पर मकर संक्रांति के दिन स्नान का विशेष महत्त्व है। इस संगम पर मकर संक्रांति का विशाल मेला लगता है। इसी देवप्रयाग से भागीरथी और अलकनंदा नदियों के मिलन से गंगा का आविर्भाव हुआ था। यहीं से दोनों नदियों का मिलन का नाम गंगा रखा गया जो यहां से ऋषिकेश, हरिद्वार प्रयागराज और काशी होती हुई पश्चिम बंगाल के गंगासागर में समाहित हो जाती है। गंगासागर में भी मकर सक्रांति का विशाल मेला लगता है। पौष मास की मकर संक्रांति को गंगा स्नान का अत्यधिक महत्त्व माना गया है। मकर सक्रांति और उसके के अगले दिन उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पर्वतीय क्षेत्रों में काले कौवा त्योहार मनाया जाता है। छोटे बच्चों की दीर्घायु और स्वस्थ जीवन के लिए शक्करपारे बनाए जाते हैं जो कौवे को खिलाए जाते हैं।
उत्तराखंड में सूर्य मंदिरों की समृद्ध शृंखला
उत्तराखंड के जाने-माने इतिहासकार डीडी शर्मा की पुस्तक ‘उत्तराखंड का पौराणिक देवकुल’ के अनुसार उत्तराखंड में सूर्य मंदिरों की एक समृद्ध शृंखला स्थिति थी, जो उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र अल्मोड़ा से गढ़वाल मंडल के विभिन्न जिलों में फैली हुई थी। इस समय इस देवभूमि के पर्वतीय क्षेत्र उत्तरकाशी की टकनौर पट्टी में क्यार्क और रैथल गांवों के बीच एक प्राचीन आदित्य- मंदिर के अवशेष ही बचे हुए हैं। साथ ही इसी जिले में ही नौगांव के उत्तर-पश्चिम में मंज्याली गांव में मुसादेवी का एक मंदिर सूर्य भगवान को समर्पित था, जिसके अवशेष स्थित है उत्तराखंड के सूर्य मंदिरों की इस शृंखला में कुमाऊं मंडल के चंपावत जिले के चमदेवल नामक स्थान के पास मड़ गांव में, अल्मोड़ा जिले की बारामंडल तहसील के कनरा गांव में, जैंती के निकट पुभाऊं गांव में, जागेश्वर मंदिर समूह में, चंपावत जिले के भिंगराड़ा के पास रमक गांव में, डीडीहाट के चौपाता गांव में, चंपावत जिले के खेतीखान में और पिथौरागढ़ जिले के चौपखिया चौमू में अत्यंत प्राचीन सूर्य मंदिरों के होने के प्रमाण पाए जाते हैं।