भारत एक त्योहारों का देश है और इस बार अक्टूबर माह में सभी त्योहार आ रहे हैं। करवाचौथ के बाद अब सभी को दिवाली का इंतजार रहता है। लेकिन इससे पहले कार्तिक माह की अष्टमी के दिन आता अहोई अष्टमी का व्रत। उत्तर भारत में ज्यादा इस व्रत का प्रचलन है। इस द‍िन अहोई माता की पूजा की जाती है। इस दिन माताएं अपने बच्चों की लंबी उम्र के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। उत्तर भारत में और विशेष रूप से राजस्थान में महिलाएं बड़ी निष्ठा के साथ इस व्रत को करती हैं। इस दिन व्रत करने वाली महिलाएं घर की दीवार पर अहोई का चित्र बनाती हैं। संतान की सलामती से जुड़े इस व्रत का बहुत महत्व है। इस व्रत को हर महिला अपने बच्चे के स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिए करती हैं। कुछ महिलाएं इस व्रत को बच्चे की प्राप्ति के लिए भी करती हैं।

इस दिन को विशेष पूजा होती है। इस दिन के लिए विशेष मान्यता भी है। यह व्रत बड़े व्रतों में से एक है. इसमें परिवार कल्याण की भावना छिपी होती है। इस व्रत को करने से पारिवारिक सुख प्राप्त‍ि और संतान को लंबी आयु का वरदान मिलता है। इसे संतान वाली स्त्री ही करती है। इस पूजा के पीछे एक प्राचीन कथा है। दरअसल, दिवाली पर घर को लीपने के लिए एक साहुकार की सात बहुएं मिट्टी लाने जंगल में गई। तो उनकी ननद भी उनके साथ चली आई। साहुकार की बेटी जिस जगह मिट्टी खोद रही थी। उसी जगह स्याहु अपने बच्चों के साथ रहती थी। मिट्टी खोदते वक्त लड़की की खुरपी से स्याहू का एक बच्चा मर गया।

इसलिए जब भी साहुकार की लड़की के जब भी बच्चे होते थे। वो सात दिन के अंदर मर जाते थे। एक-एक कर सात बच्चों की मौत के बाद लड़की ने जब पंडित को बुलाया और इसका कारण पूछा। लड़की को पता चला कि अनजाने में जो उससे पाप हुआ, उसका ये नतीजा है। पंडित ने लड़की से अहोई माता की पूजा करने को कहा, इसके बाद कार्तिक कृष्ण की अष्टमी तिथि के दिन उसने माता का व्रत रखा और पूजा की। बाद में माता अहोई ने सभी मृत संतानों को जीवित कर दिया। इस तरह से संतान की लंबी आयु और प्राप्ति के लिए इस व्रत को किया जाने लगा।