Dussehra 2019: देवी जया और विजया का पर्व विजयादशमी यानी दशहरा दरअसल नवरात्रि के नौ पावन दिनों के पश्चात् ख़ुद पर विजय पाकर स्वयं के पुनर्परिचय का महाकाल है। विजयादशमी अपने ही भीतर के सप्त सुप्त चक्रों पर आसीन नौ ऊर्जाओं और अपनी बाह्य शक्ति से नौ गुनी अधिक आंतरिक क्षमता के बोध से सर्वत्र विजय की महाअवधारणा है। नवरात्रि के नौ दिनों की साधना के पश्चात् स्वयं पर क़ाबू पाकर विजय की दशमी अर्थात् विजयादशमी का सूत्रपात संभव है। मूल भाव तो यही है कि स्वयं को जीते बिना जगत को या किसी को भी जीतेंगे कैसे।

नवरात्रि का पर्व किसी पंडाल में स्थापित देवी की कृपा प्राप्त करने का नहीं, बल्कि अपने ही भीतर के सप्तचक्रों पर विराजित अपनी ही नौ शक्तियों के बोध और अपनी बाह्य ऊर्जा से नौ गुनी शक्तिशाली आंतरिक ऊर्जा को सहजता और सरलतापूर्वक सक्रीय करने की पावन बेला है। अपने अंतर्मन से बाहर पंडाल में देवी की स्थापना तो बस स्वयं से जुड़ने की किसी वैज्ञानिक पद्धति का हिस्सा प्रतीत होती है, जिसकी तकनीक कालांतर में विस्मृत होने से आज सिर्फ़ पारंपरिक मान्यताओं की खुराक बन कर रह गयी हैं।

अश्विन माह की दशमी को तारा उदय होने से सर्व कार्य सिद्धि दायक योग बनता है। लिहाज़ा स्वयं की दसों इंद्रियों पर विजय के लिए यह काल सर्वश्रेष्ठ है। दशहरा और दशरथ एक जैसे शब्द हैं। दोनों में दस है। दस से अभिप्राय है दस इन्द्रियां। पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ। इन्ही इन्द्रियों को पराजित करनें का प्रतीक है यह पर्व। स्वयं पर विजय पाने वाला ही दशरथ कहलाता है। राम दशरथ की संतान हैं। राम कहीं बाहर से नहीं, इन्ही दशरथ से अर्थात् हमारे भीतर से ही प्रस्फुटित होते हैं। दशरथ हमारी आपकी आंतरिक क्षमता का प्रतीक पुरुष है, महाचिन्ह है।

किसी को जगाने से पहले स्वजागरण अनिवार्य है। अंतर्दृष्टि न हो तो भटकाव होगा। दृष्टि न हो तो उजाला समझाया नहीं जा सकेगा। किसी नेत्रहीन को उजाले की परिभाषा देकर देखिए, न आप उसे प्रकाश से परिचित करा सकेंगे, न ही वो बिना देखे रोशनी का मर्म समझ सकेगा। क्योंकि प्रकाश को बाहर से समझाने का कोई उपाय नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। और उसे समझनें के लिए सिर्फ दृष्टि ही तो खोलनी है। दशहरा स्वजागरण की बेला है, आंतरिक जागरण का महापर्व है।

श्रवण नक्षत्र और शमी पूजन

श्रवण नक्षत्र इस पर्व को और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बनाता है। इस नक्षत्र में शमी वृक्ष का पूजन इसे अत्यधिक धार प्रदान करता है। श्रवण नक्षत्र इस पर्व में पूजन वाद-विवाद, आक्रमण और द्यूत सहित चहुँओर विजय सुनिश्चित करता है। कौरवों की द्यूत में जीत के पीछे शमी पूजन मुख्य कारक था। श्रीकृष्ण ने यह रहस्य जान कर पांडवों को भी श्रवण नक्षत्र में शमी का पूजन करा कर उन्ही के अस्त्र से उन्हें पटखनी दे दी।

अर्जुन ने अज्ञातवास में अपने अस्त्र गांडीव को पूरे वर्ष शमी वृक्ष पर रखा। जिससे गांडीव महाभारत में मारक हथियार में रूप में शत्रुओं में ख़ौफ़ का सबब बन गया। कहते हैं कि श्रीराम ने जब विजय मुहूर्त में पूजन कर लंका पर आक्रमण किया तो शमी वृक्ष स्वयं विजय मुहूर्त में इस पूजन का साक्षी बना।

परम्पराओं की चादर में दही के साथ मिष्ठान इस दिन को और भी अधिक प्रभावी बनाता है। कहीं कहीं पूजन में दही के संग जलेबी अर्पित कर उसके प्रसाद ग्रहण का भी रिवाज है।