Ashadi Ekadashi 2020: हिंदू धर्म में देवशयनी एकादशी काफी महत्वपूर्ण मानी गई है। मान्‍यता है इस दिन से भगवान विष्णु क्षीरसागर में चार महीनों के लिए शयन करने के लिए चले जाते हैं। जिस कारण शादी ब्याह, गृहप्रवेश, नामकरण संस्कार, मुंडन संस्कार जैसे शुभ कार्यों पर रोक लग जाती है। साल 2020 में देवशयनी एकादशी 1 जुलाई को मनाई जायेगी। इसी दिन से चातुर्मास की शुरुआत भी हो जाएगी और इसकी समाप्ति 25 नवंबर को देवउठनी एकादशी पर होगी। देवउठानी का अर्थ है देव का उठना यानि इस दिन भगवान विष्णु अपनी योग निद्रा से उठ जाते हैं जिससे शुभ कार्यों का फिर से आरंभ हो जाता है।

चार्तुमास में क्या करें और क्या न करें? मान्यता है कि चार्तुमास में ध्यान, तप और साधना करनी चाहिए। इस महीने में दूर की यात्राओं से बचने के लिए भी कहा जाता है। इस दौरान घर से बाहर तभी निकलना चाहिए जब जरूरी हो। क्योंकि वर्षा ऋतु के कारण कुछ ऐसे जीव-जंतु सक्रिय हो जाते हैं जो आपको हानि पहुंचा सकते हैं। चार्तुमास के पहले महीने यानी सावन में हरी सब्जी़, इसके दूसरे माह भादौ में दही, तीसरे माह आश्विन में दूध और चौथे माह में कार्तिक में दाल विशेषकर उड़द की दाल नहीं खाने की सलाह दी जाती है।

देवशयनी एकादशी का महत्व: देवशयनी एकादशी को पौराणिक ग्रंथों के अनुसार बहुत महत्व दिया जाता है। इस एकादशी से जुड़ी एक कथा है जिसके अनुसार एक बार ब्रह्मा जी से देवर्षि नारद ने आषाढ़ मास की शुक्ल एकादशी के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की तब ब्रह्मा जी नारद को इस एकादशी की कथा सुनाने लगे। सतयुग की बात है कि माधांता नाम के चक्रवर्ती सम्राट हुआ करते थे, वह बहुत ही पुण्यात्मा, धर्मात्मा राजा थे, प्रजा भी उनके राज में सुखपूर्वक अपना गुजर-बसर कर रही थी, लेकिन एक बार क्या हुआ कि तीन साल तक लगातार उनके राज्य में आसमान से पानी की एक बूंद नहीं बरसी, खाली सावन आते रहे और धरती की दरारें बढ़ने लगीं। जनता भी भूखी मरने लगी, अब धर्म-कर्म की सुध किसे रहती अपना पेट पल जाये यही गनीमत थी। प्रजा राजा के पास अपना दुखड़ा लेकर जाने के सिवा और कहां जा सकती थी। राजा बेचारे पहले से ही दुखी थे, जनता के आने से उनका दुख और बढ़ गया।

अब राजा को न रात को नींद न दिन में चैन हमेशा इसी परेशानी में रहते कि मुझसे ऐसा कौनसा अपराध हुआ जिसका दंड मेरी प्रजा को भोगना पड़ रहा है। राजा अपनी शंका लेकर वनों में ऋषि मुनियों के पास गया। चलते-चलते वह ऋषि अंगिरा (ब्रह्मा जी के पुत्र) के आश्रम में पंहुच गया। उन्हें दंडवत प्रणाम कर राजा ने अपनी शंका ऋषि के सामने प्रकट करते हुए अपने आने का उद्देश्य बताया। उस समय (सतयुग) में ज्ञान ग्रहण करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही होता था और अन्य वर्णों विशेषकर शूद्रों के लिये तो यह वर्जित था और इसे पाप माना जाता था। ऋषि कहने लगे राजन आपके शासन में एक शूद्र नियमों का उल्लंघन कर शास्त्र शिक्षा ग्रहण कर रहा है। इसी महापाप का खामियाज़ा तुम्हारी सारी प्रजा उठा रही है। प्रजा को इस विपदा से उबारने के लिये तुम्हें उसका वध करना होगा। लेकिन राजा का मन यह नहीं मान रहा था कि वह मात्र शिक्षा ग्रहण करने को ही अपराध मान लिया जाये उन्होंने कहे हे गुरुवर क्या कोई अन्य मार्ग नहीं है जिससे उस निरपराध की हत्या के पाप से मैं बच सकूं। तब अंगिरा ऋषि कहने लगे एक उपाय है राजन। तुम आषाढ़ मास की शुक्ल एकादशी के व्रत का विधिवत पालन करो तुम्हारे राज्य में खुशियां पुन: लौट आयेंगी। राजा वहां से लौट आया और आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी आने पर व्रत का विधिवत पालन किया। राज्य में जोर की बारिश हुई और प्रजा फिर से धन-धान्य से निहाल हो गई।