लेखिका गीता हरिहरन का कहना है कि एक लेखक की भूमिका बेहद गंभीर है और किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह लेखक को निर्देश दे कि उसे कब विरोध जताना है। गीता कल एक अखबार समूह की ओर से आयोजित दिल्ली साहित्य समारोह के समापन के अवसर पर बोल रही थीं।

‘सभी लेखकों को अपने-अपने दौर में एक तरह का विद्रोही’ बताते हुए उपन्यासकार ने दक्षिण अफ्रीकी लेखिका एंड्रे ब्लिंग को उद्धृत करते हुए कहा, ‘लेखक का काम उल्लंघन करना है और घेराबंदी के दौरान जब ‘सत्ता के प्रतिष्ठान’ विरोधियों की आवाजों को अवरूद्ध करने की कोशिश करते हैं तब एक लेखक को बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है।’

उन्होंने कहा, ‘कई लेखकों ने अलग-अलग समय पर आवाज उठाई है। बीते समय में भी हमने विरोध प्रदर्शन किए…बहसें भी कीं, लेकिन लेखकों की हत्याओं के बाद एक ऐसा बिंदु आ गया, जिसने कुछ इस तरीके से अभिव्यक्त करने की भूख पैदा कर दी, जैसा कि आम तौर पर लेखक नहीं किया करते।’ लेखिका के साथ अन्य लेखकों ने ‘सेल्फ सेंसरशिप’ की जरूरत पर अपनी-अपनी बात रखी।

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित मृदुला गर्ग ने कहा, ‘कई तरह की सेंसरशिप होती है- सरकारी सेंसरशिप, सार्वजनिक सेंसरशिप और सबसे बुरी है सेल्फ सेंसरशिप। हर सेंसरशिप का उद्देश्य यही है कि अंतत: लेखक को सेल्फ सेंसरशिप करने वाला बना दिया जाए।’

गर्ग ने कहा, ‘जब वे लेखक की किताब पर प्रतिबंध लगाते हैं तो वह इसलिए नहीं होता कि वे पाठकों को इसे पढ़ने से रोकना चाहते हैं। बल्कि यह इसलिए लगाया जाता है क्योंकि वे नहीं चाहते कि लेखक लिखे।’
प्रदर्शनकारी और असंतुष्ट का विचार समझने के महत्त्व पर जोर देते हुए उन्होंने कहा, ‘प्रदर्शन अस्थायी होता है जबकि असंतुष्टि चिरस्थायी होता है और लेखक एक चिरस्थायी असंतुष्ट है।’

महात्मा गांधी की पड़पौत्री लीला गांधी ने लोकतंत्र के पीछे ‘सहमति से शासन’ के विचार को उद्धृत करते हुए कहा कि इसी लोकतंत्र ने हमें ‘न कहने का भी अधिकार दिया है।’ गांधी ने कहा, ‘हालांकि न कहना बहुत मुश्किल है क्योंकि कोई भी न कहने वाले को पसंद नहीं करता और ऐसे व्यक्ति की आवाज बंद करने की कोशिश करता है। यही वजह है कि विरोध जताने वाले लोगों को नकारात्मकता फैलाने वाला माना जाता है।’