पश्चिम बंगाल का जन्म एक समस्याग्रस्त राज्य के तौर पर हुआ है -देश की आजादी के सात साल बाद जानी-मानी पत्रिका ‘द इकोनामिक वीकली’ ने 15 अगस्त, 1954 के अपने अंक में छपे एक लेख में यह बात कही थी। इसमें कहा गया था कि बंगाल में दूसरे राज्यों को मुकाबले ज्यादा उद्योग तो हैं, लेकिन उनकी प्रगति नहीं हो रही है। बंगाल में ऊपर से नजर आने वाली शांति एक छलावा है। पत्रिका के संस्थापक संपादक सचिंद्र चौधरी, जो आगे चल कर देश के वित्त मंत्री बने, ने इस लेख में जो आशंकाएं जताई थीं वे जल्दी ही सच साबित हुईं। आज तक हालात नहीं बदले हैं। वर्ष 1947 से 1971 के बीच बंगाल में सीमा पार से आने वाले सत्तर लाख शरणाथिर्यों ने राज्य की आबादी का ग्राफ तो बदला ही, भावी राजनीति की दशा-दिशा भी तय कर दी। घुसपैठ का सिलसिला अब भी जारी है। घुसपैठ ने इस राज्य की अर्थव्यवस्था और राजनीति के ढांचे व स्वरूप को बिगाड़ दिया है। सत्तर के दशक में राज्य में औद्योगिक परिदृश्य भी बिगड़ने लगा था।
मजदूर संगठनों के उग्र रवैए का असर ज्यादा रहा। उसी दौर में आदित्य बिड़ला और लक्ष्मी मित्तल जैसे धनी मारवाड़ी परिवारों के उत्तराधिकारी कोलकाता छोड़ कर दूसरी जगह जाने लगे। सामाजिक और आर्थिक प्रगति के मोर्चे पर हालात बहुत ज्यादा नहीं बदले हैं। हजारों की तादाद में छोटे व मझौले उद्योग बंद हो चुके हैं। किसी दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से लाखों मजदूरों को लुभाने वाली जूट मिलें सबसे बदहाल दौर से गुजरते हुए सूने भविष्य की ओर ताक रही हैं। कोलकाता का गौरव कही जाने वाली ट्रामें अब घिसटते-सिसकते हुए अपनी कब्र की ओर बढ़ रही हैं।राज्य सरकार उद्योगों को लेकर ढिंढोरा पीटने के बावजूद अब तक कुछ खास नहीं कर सकी है। राज्य से प्रतिभा का पलायन तेज हो रहा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी है। आजादी के समय यहां बमुशिकल छोटे-बड़े सौ अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र थे। इनकी तादाद बढ़ कर अब 10 हजार से ऊपर पहुंच गई है। लेकिन बावजूद इसके गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए ज्यादातर लोग अब भी दक्षिण भारत का ही रुख करते हैं। इसकी वजह है सरकारी अस्पतालों में ढांचागत सुविधाओं, डाक्टरों व दवाओं की भारी कमी। दूसरी ओर, निजी अस्पतालों पर इलाज में लापरवाही और मनमाना बिल वसूलने के आरोप लगते रहे हैं।
