पश्चिम बंगाल में तटकटाव की समस्या साल-दर-साल गंभीर होती जा रही है। राज्य के मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों में हर साल सैकड़ों एकड़ जमीन गंगा और पद्मा नदियों के पेट में समा रही है। इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर उनसे इस पर अंकुश लगाने के लिए आर्थिक सहायता देने का अनुरोध किया था। गंगा नदी की ओर से हर साल बरसात के सीजन में बड़े पैमाने पर होने वाले भूमिकटाव के कारण हर बार तटीय इलाकों में रहने वाले लोगों के पते बदल जाते हैं। यह नदी हर साल मालदा और पड़ोसी मुर्शिदाबाद जिले में हजारों एकड़ फसलें लील जाती है। साथ ही कई गांव भी इसके पेट में चले जाते हैं। नतीजतन हर साल लाखों लोग बेघर हो जाते हैं। अब एक बार फिर बरसात का मौसम शुरू होने से उन इलाकों के वाशिदों के साथ-साथ सरकार की चिंता भी बढ़ने लगी है।
मालदा के झाऊबन ग्राम पंचायत के अहमद के परिवार के पास वर्ष 1971 में सौ बीघा जमीन थी, लेकिन हर साल बदलते गंगा के बहाव से होने वाले भूमिकटाव के कारण धीरे-धीरे उसकी जमीन नदी में समाती गई और आज एक इंच जमीन भी नहीं बची है। वह हर साल अपना ठिकाना बदलता रहा है। फिलहाल वह गंगा के तट से चार किमी दूर बसी बस्ती में रहता है। अहमद बताता है कि पहले नदी यहां से सात किलोमीटर दूर थी। लेकिन अब यह दूरी चार किलोमीटर ही बची है। दोनों जिलों में भूमिकटाव की समस्या इतनी भयावह है कि इसे राष्ट्रीय समस्या घोषित करने की मांग में आंदोलन होते रहे हैं। राज्य सरकार पैसों की कमी का रोना रोते हुए सारा दोष केंद्र के मत्थे मढ़ देती है। हर चुनाव में यही मुद्दा सबसे अहम होता है। सिंचाई विभाग के अधिकारी बताते हैं कि मालदा में कटाव की समस्या बेहद गंभीर है। हर साल पंचानंदपुर, कालियाचक, रतुआ और मानिकचक इलाकों में जमीन गंगा के पेट में समा रही है। कुतुबुद्दीन और उसके परिवार ने गंगा के कटाव की वजह से 30 साल पहले ही अपनी जमीन से हाथ धो लिया था। बीते 20 वर्षों के दौरान पांच बार अपना ठिकाना बदला है। कुतुबुद्दीन कहता है कि बाढ़ से नुकसान तो पहले भी होता था, लेकिन पानी उतरने के बाद हमें अपनी जमीन मिल जाती थी और वह पहले के मुकाबले ज्यादा उपजाऊ हो जाती थी। लेकिन इस कटाव ने तो मेरा सब कुछ हमेशा के लिए छीन लिया है।
मालदा में सिंचाई विभाग में कार्यकारी अभियंता रहे पीके राय बताते हैं कि वर्ष 1972 में फरक्का बांध बनने से पहले भी बाढ़ और कटाव की समस्या थी। लेकिन बांध बनने के बाद इसका आकार भयावह हो गया है। सरकारी आंकड़ों के हवाले से राय बताते हैं कि वर्ष 1980 से अब तक लगभग छह हजार हेक्टेयर जमीन गंगा में समा चुकी है। इनमें गांवों के अलावा आम के बागान और खेत शामिल हैं।गंगा का कटाव साठ के दशक से ही चिंता का विषय बना हुआ है। लेकिन एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, फरक्का बांध बनने के बाद हालात तेजी से बदतर हुए हैं। इलाके में बाढ़ व कटाव की वजहों का पता लगाने के लिए सरकार ने वर्ष 1980 में प्रीतम सिंह समिति का गठन किया था और 1996 में केशकर समिति का। इन दोनों ने अपनी रिपोर्ट में इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए कई अल्पकालीन और दीघर्कालीन उपाय सुझाए थे। लेकिन उस समय धन की कमी की वजह से सरकार एक भी सिफारिश पर अमल नहीं कर सकी। पैसों की यह कमी अब भी जस की तस है। ऐसे में इस समस्या पर निकट भविष्य में अंकुश लगने के आसार नहीं नजर आते।

