बीते चार-पांच साल में उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हंै। इस कारण उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र तबाही के कगार पर पहुंच रहे हैं। बादल फटने की घटनाओं की वजह से जानमाल की हानि के साथ कृषि भूमि भी नष्ट हो रही है। पिछले पांच साल में बादल फटने की घटनाओं में 50 से 60 फीसद तक बढ़ोतरी हुई है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के कई स्थानों पर लगातार तीन-चार दिन तक बादल फटने की घटनाएं होती रही हैं। इस साल जून के आखरी हफ्ते से जुलाई प्रथम सप्ताह तक उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में तीन घटनाएं हो चुकी हैं। पर्यावरण और भू-विज्ञानियों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में तापमान ज्यादा गर्म हो रहा है। इस वजह से मौसम के चक्र में भारी परिवर्तन देखने को आया है। पर्यावरण से जुड़े जानकारों का यह भी मानना है कि उत्तराखंड में टिहरी और श्रीनगर गढ़वाल तथा अन्य जगहों पर बनने वाले विशाल बांधों के जलाशयों के कारण वाष्पीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई हैं। पानी में वाष्पीकरण की प्रक्रिया से ही बादल बनते है। बांधों की बड़ी-बड़ी झीलों के कारण वाष्पीकरण की प्रक्रिया में तेजी आने से बादलों का बनने की प्रक्रिया बहुत तेज हो गई है। और बादल जब उत्तराखंड की संकरी घाटियों और ऊंची पहाड़ियों में पहुंचते हैं तो इन घाटियों की नमी की वजह से बादलों का वजन बढ़ जाता हैं और बादल आसमान में अधिक ऊंचाई तक नहीं उड़ पाते है और जिस कारण वह किसी एक जगह पर ही बरस पड़ते हैं। इससे कुछ मिनट में तबाही मच जाती है।
1998 में मंदाकनी घाटी में बादल फटने की घटना अगस्त में तथा सन् 2001 में जुलाई में हुई थी। इसके बाद उत्तराखंड में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अत्यधिक देखने को मिला। पिछले साल 2016 में टिहरी जिले के घनसाली, चनियाला और बूढ़ा केदार क्षेत्रों में मई के महीने में ही बादल फटने की घटनाएं तीन-चार दिन तक लगातार होती रही हैं। जो पर्यावरण वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्यजनक थीं। उत्तराखंड में टिहरी बांध की 45 वर्ग किलोमीटर जैसी अन्य झीलों के कारण भी वाष्पीकरण की मात्रा में तेजी आई हैं। इस कारण बादल बनने की प्रक्रिया तेज हुई है और पर्वतीय क्षेत्रों में नमी और उमस दोनों बढ़े हैं। आईआईटी रुड़की के प्रोफेसर सतेन्द्र कुमार मित्तल का कहना है कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के बदलते मौसम पर गहन अध्ययन करने के बाद यह पाया गया कि उत्तराखंड में लगातार जलवायु परिर्वतन का सबसे तेजी के साथ प्रभाव हुआ है। इस वजह से यहां मौसम चक्र में बदलाव आया है और बेमौसमी बारिश के कारण भू-स्खलन घटनाएं भी तेजी से हो रही हैं। सन 2013 में केदारनाथ में आई दैवीय आपदा के वक्त 14 से 17 जून तक उत्तराखंड में सामान्य से 375 फीसद अधिक बारिश हुई थी। विज्ञानियों का मानना है कि उत्तराखंड की पहाड़ियों में बादल फटने की घटनाएं इसलिए ज्यादा होती है क्योकि यहां मानसून के बादलों को पर्वतों की शृंखलाएं रोक देती हैं। उत्तराखंड में लगातार हो रही बादल फटने की घटनाओं से जहां जान-माल का नुकसान होता है, वहीं यहां की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। बादल फटना उत्तराखंड के स्थानीय लोगों के साथ चार धाम तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों के लिए एक आफत बन गया है।
लेह त्रासदी : सात साल पहले कुछ देर में बह गया था सब कुछ
लद्दाख के लेह में बादल फटने के कारण हुई तबाही अब भी लोगों को याद है। 5-6 अगस्त 2010 की रात लेह पर जैसे आसमान से कहर टूट पड़ा। अचानक आई बाढ़ के कारण नदी और नाले उफान पर आ गए और पल भर में ही लेह को अपनी चपेट में ले लिया। पानी के तेज बहाव में नए और पुराने या मिट्टी या कंक्रीट से बने घर व भवन बह गए। 257 से ज्यादा लोगों ने अपनी जाने गंवाईं। इनमें 36 गैर लद्दाखी भी शामिल थे। लेह के अधिकतर गांव इसकी चपेट में आए थे। सबसे ज्यादा तबाही चोगलमसर गांव में हुई। कहीं पूरा का पूरा परिवार ही इसकी भेंट चढ़ गया तो किसी परिवार में इक्के- दुक्के लोग ही बचे। त्रासदी के बाद केंद्र और राज्य सरकार ने पीड़ितों को राहत पहुंचाने के भरसक उपाय किए। नतीजतन आज लद्दाख एक बार फिर मजबूत इरादों के साथ चल पड़ा है। वहां न तो पर्यटन में कोई कमी आई है और न ही स्थानीय लोगों के जज्बे में। लेह समुद्र की सतह से करीब 11,500 फुट की ऊंचाई पर बसा है। यहां का मौसम अत्याधिक ठंडा होता है। नवंबर से मार्च के बीच तापमान शून्य से भी 40 डिग्री नीचे चला जाता है। भारी बफर्बारी के कारण इसका संपर्क कट जाता है। यही कारण है कि इसे देश का ठंडा रेगिस्तान भी कहा जाता है। ऐसे मौसम के कारण ही यहां वर्षा की मात्रा काफी कम होती है।
ऐसे में लद्दाख जैसे क्षेत्र में बादल फटने की घटना क्या मतलब है? क्या यह घटना तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन की वजह से हुई? जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी लगातार गर्म हो रही है। विकास के नाम पर जंगल उजाड़े जा रहे हैं। परिणामस्वरूप तापमान बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार 2010 में देश के उत्तरी राज्यों में तापमान में काफी वृद्धि देखी गई थी। इसका नकारात्मक प्रभाव लद्दाख में भी देखने को मिला है। जलवायु परिर्वतन के कारण बेमौसमी बारिश पर्वतीय क्त्रों में हो रही है और लगातार तापमान बढ़ने के कारण बादल फटने की घटनाओं का सही अनुमान लगाना बेहद कठिन हो गया हैं। आठ-नौ साल पहले तक पहाड़ों में बादल फटने की घटनाएं मानसून के दौरान जुलाई से अगस्त माह के बीच होती थीं, परंतु जलवायु परिर्वतन का इतना अधिक प्रभाव पड़ा हैं कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाएं मानसून के पूर्व की वर्षा से पहले मई और जून में भी हो रही हैं।
– प्रोफेसर यशपाल सुन्द्रियाल, हेमवती नंदन बहुगुणा केन्द्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय
के भू-विज्ञान विभाग

