बीकानेर में हर दिवाली (दीपावली) पर एक अनूठी परंपरा देखने को मिलती है। इस परंपरा के तहत हिंदू धर्म ग्रंथ रामायण का उर्दू संस्करण लोगों को सुनाया जाता है। यह आयोजन हर साल होता है और इस आयोजन में उर्दू के शायरों को बुलाया जाता है। रामायण के उर्दू संस्करण को हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों के लोग प्यार और सद्भाव के साथ सुनते हैं।
उर्दू में यह रामायण लगभग 89 साल पहले लिखी गई थी और तब इसे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा स्वर्ण पदक भी दिया गया था। इस बार उर्दू के शिक्षक और शायर डॉक्टर जिया उल हसन कादरी ने एक समारोह में दो अन्य मुस्लिम शायरों के साथ उर्दू रामायण का पाठ किया।
भाईचारे का संदेश देना है मकसद
कादरी का कहना है कि इस कार्यक्रम का मकसद सद्भाव और भाईचारे का संदेश देना है जिससे सभी लोग मिलजुल कर रहें। कार्यक्रम का आयोजन पर्यटन लेखक संघ और महफिल-ए-अदब के द्वारा हर साल संयुक्त रूप से किया जाता है। कादरी का कहना है कि रामायण के इस उर्दू संस्करण में रामायण के दृश्यों, भगवान राम के वनवास, रावण पर जीत हासिल करने और अयोध्या लौटने का बिल्कुल सजीव वर्णन किया जाता है। उन्होंने बताया कि शहर के सभी लोग इसे बहुत पसंद करते हैं।
राणा लखनवी ने तैयार कराया था उर्दू संस्करण
बीकानेर के मौलवी बादशाह हुसैन राणा लखनवी ने 1935 में गोस्वामी तुलसीदास की जयंती पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक प्रतियोगिता के लिए उर्दू भाषा में रामायण का यह संस्करण तैयार कराया था। तब इसे प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक मिला था जिसके बाद बीकानेर के तत्कालीन शासक महाराजा गंगा सिंह ने राणा लखनवी के रामायण के इस उर्दू संस्करण को सुनने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। कादरी ने बताया कि उसी कार्यक्रम में तेज बहादुर सप्रू ने बनारस विश्वविद्यालय हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से राणा लखनवी को स्वर्ण पदक दिया था।
2012 से चली आ रही है परंपरा
कादरी हर दिवाली पर होने वाले रामायण के उर्दू संस्करण के वाचन की इस परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते हैं। यह परंपरा साल 2012 से चली आ रही है और कादरी अब इसे आगे ले जाना चाहते हैं। कादरी ने बताया कि उर्दू रामायण का पाठ मुस्लिम कवि करते हैं और उन्हें सुनने के लिए हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदायों के लोग कार्यक्रम में शामिल होते हैं।
कादरी ने बताया कि पहले इस कार्यक्रम का आयोजन किसी खुली जगह पर किया जाता था लेकिन बाद में आयोजन स्थल को इस वजह से बदला गया क्योंकि होटल में कार्यक्रम के आयोजन से जरूरी इंतजाम करना आसान हो जाता है।
कादरी ने जानकारी दी कि मौलवी बादशाह हुसैन राणा लखनवी ने 1913 से 1919 तक तत्कालीन राजा गंगा सिंह के लिए काम किया था और इस दौरान उन्होंने मुगल शासकों द्वारा जारी किए गए आदेशों का फारसी से उर्दू में अनुवाद किया था। 1920 में गंगा सिंह ने उन्हें डूंगर कॉलेज में शिक्षक नियुक्त किया था।