पिछले सप्ताह किराना घराने की युवा गायिका ज्योतिका दयाल ने अपने गुरु पं अमरनाथ, विदुषी शांति शर्मा और उस्ताद मशकूर अली खान के प्रति स्वरांजलि के तौर पर हैबिटाट सेंटर के अमलतास सभागार में शास्त्रीय संगीत प्रस्तुत किया। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में निर्धारित समय के विधान का ध्यान रखते हुए ज्योतिका दयाल ने अपनी स्वरांजलि का शुभारंभ राग पूरिया-कल्याण से किया। शाम के समय गाया व बजाया जाने वाला यह राग पूरिया और कल्याण दो रागों के मेल से बना है। इस राग का व्याकरण सम्मत निर्वाह, और वह भी ऐसा कि दो रागों का जोड़ दिखाई न दे, यह ज्योतिका के प्रदर्शन की निराली बात थी। किराना घराने की खंडमेरु जैसी तकनीक का कल्पनाशील प्रयोग उनके आलाप की सुर दर सुर बढ़त से ले कर तानों की तरतीब और विविधता तक में दिखाई दिया। राग की परिचयात्मक आलाप या संक्षिप्त औचार के बाद विलंबित एकताल में निबद्ध पारंपरिक बड़े ख्याल ‘आज सो बना…’ और छोटे ख्याल ‘मोरे घर आजा …’ में आकार और सरगम की तैयार तानों की कठिन उलट-पलट के बाद इसी राग में उन्होंने उस्ताद अमीर खां की शैली में एक रुबाईदार तराना भी पेश किया।

इसके बाद राग बिहाग अच्छा कंट्रास्ट था जिसमें उन्होंने दो-तीन खास चीजें सुनाईं। उस्ताद मशकूर अली खां की रची और उन्हें समर्पित पहली बंदिश मध्य लय झपताल में थी। दूसरी द्रुत एकताल में ‘बनी-बनी ठनी-ठनी…’ जिसमें हर लफ्ज को दो-दो बार इस्तेमाल किया गया था। इस बंदिश की यह खासियत तो ज्योतिका ने बताई लेकिन कंपोजर का नाम नहीं, जबकि यह बंदिश ‘रसन-पिया’ उपनाम वाले बुजुर्ग मरहूम उस्ताद अब्दुल रशीद खां की रचना थी।

राग दुर्गा में ‘मितुरंग’ उपनाम से रचित पं. अमरनाथ की और उन्हीं से सीखी एकताल की बंदिश ‘निर्गुन कैसे जाने…’ गाकर ज्योतिका ने मीरा भजन ‘म्हारो प्रणाम’ से अपना गायन संपन्न किया। हारमोनियम पर जाकिर धौलपुरी और तबले पर प्रदीप चटर्जी ने उनकी अनुकूल संगति की। ज्योतिका की स्वरांजलि उनकी बेहतरीन तालीम और भरपूर रियाज की परिचायक थी लेकिन हर राग में सरगम और आकार तानों की बहुतायत ने पुनरावृत्ति दोष का अवांछित आभास दिया, जिससे वह जरा सा संयम बरत कर बच सकती थीं।