राजस्थान में दिव्यांगजनों (जिनमें निशक्त और विकलांग शामिल हैं)को सरकार की बेरुखी का सामना करना पड़ रहा है। इन लोगों की सुनने के लिए सरकार सिर्फ अपनी योजनाओं को हवाला देकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर रही है। दिव्यांगों के पेंशन मद में ही सरकार सबसे ज्यादा बजट खर्च करती है। इसके अलावा इन्हें रोजगार से जोड़ने और नौकरियों में इनके लिए कोटे का प्रावधान होने के बावजूद सरकार उस पर कारगर तरीके से अमल नहीं कर रही है। सरकार की बेरुखी के कारण ही अब दिव्यांगों को भी अपने हक के लिए संघर्ष को मजबूर होना पड़ रहा है।

सरकारी आंकड़ों के हिसाब से प्रदेश की आबादी का ढाई फीसद हिस्सा दिव्यांगों की श्रेणी में आता है। दिव्यांगों के हक की लड़ाई लड़ने वाले डॉक्टर सुधांशु का कहना है कि आबादी के इस उपेक्षित वर्ग की हालात बेहद चिंतनीय है। प्रदेश में 17-18 लाख की आबादी वाले इस समूह का कोई संगठित वोट बैंक नहीं होने से भी सरकारें इनकी चिंता नहीं करती हैं। विकलांग वर्ग के लिए सरकारी योजनाओं की जानकारी पारदर्शिता के अभाव के कारण सतह पर ही नहीं आ पातीं। आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि सरकार के पास इनके लिए एक साल में सिर्फ 300 करोड़ रुपए से भी कम का बजट प्रावधान है। इसमें से 240 करोड़ रुपए तो सिर्फ पेंशन मद में ही खर्च होते हैं। शेष 60 करोड़ रुपए में ही विकलांगों के कल्याण की योजनाएं चलाई जाती हैं। डॉ सुधांशु का कहना है कि इतनी कम राशि में दिव्यांगों का कोई भला नहीं हो सकता। इसमें से ज्यादातर रकम तो प्रशासनिक खर्चो में ही व्यय हो जाती है।

सरकार के सामाजिक न्याय अधिकारिता विभाग के अनुसार तो दिव्यांगों को लेकर 27 योजनाएं चलाई जा रही हैं। इसमें 60 करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। इससे ही सरकार के दिव्यांगों की भलाई के दावों की पोल खुल जाती है। इसके हिसाब से तो सरकार एक दिव्यांग पर साल भर में सिर्फ 350 रुपए ही खर्च कर उसके भले का काम करने में लगी है। इसके कारण दिव्यांगों में सरकार के प्रति गहरी नाराजगी पनपी हुई है। उनका कहना है कि सरकारी खर्च के हिसाब से तो हर रोज एक रुपए ही दिव्यांग पर खर्च किया जा रहा है।

विकलांगों की मदद में जुटे रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता निर्मल कुमार का कहना है कि सरकार की इस वर्ग के लिए पेंशन योजना भी बेमानी ही है। सरकारी पेंशन ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। दिव्यांगों में हर छह में से एक को ही पेंशन का लाभ मिल रहा है। प्रदेश में ढाई से तीन लाख दिव्यांगों को ही 750 रुपए प्रति माह पेंशन दी जा रही है। जीवन बसर के लिए इस पेंशन रकम को बढ़ाने के लिए दिव्यांगों के संगठन कई बार सरकार से गुहार लगा चुके हैं पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है।

सरकार की नौकरियों में दिव्यांगों के लिए तीन फीसद आरक्षण का प्रावधान है पर इसका अनुपालन नहीं होने से विकलांग अब सरकार के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं। वे करीब एक महीने से अपनी समस्याओं को लेकर यहां धरने पर बैठे हैं। विकलांग आंदोलन संघर्ष समिति के संयोजक रतन लाल बैरवा का कहना है कि सरकार बहरी हो गई है और एक माह से ज्यादा समय से आंदोलन कर रहे विकलांगों की सुनवाई तक नहीं की जा रही है।

बैरवा की मांग है कि चयनित 28 विकलांगों को फौरन जीएनएम नर्सिंग कोर्स के बाद फौरन नियुक्ति दी जाए। इस मामले में स्वास्थ्य विभाग के अफसर विकलांगों को टरकाने में लगे हैं। इसमें सरकार को दखल देना चाहिए। बैरवा का कहना है कि सरकार से उनकी मांग है कि सरकारी नौकरियों में दिव्यांगों के बैकलॉग को पूरा किया जाए। दिव्यांग कोर्ट का गठन किया जाए। दिव्यांगों को उनके गृह क्षेत्र में पदस्थापित किया जाए। विकलांगों की समस्याओं के निपटारे के लिए सरकार उच्च स्तरीय समिति का गठन करे और उसकी सिफारिशों के पालन को अनिवार्य बनाया जाए।

दिव्यांगों की सुविधाओं में रोड़ा

राजस्थान में विकलांगों के लिए पेंशन देने के नियमों में भी परिवार की वार्षिक आय को आधार बनाकर रखा है जिसके कारण भी कई बार नौकरशाही रोड़े अटका कर पेंशन रोक देने में देर नहीं करती है। दिव्यांगों की सुध लेने के लिए सरकार ने निशक्त जनआयुक्त का पद भी बना रखा है। फिर भी सरकारी महकमों में उसके निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है।

“सरकार दिव्यांगों के प्रति पूरी तरह से संवेदनशील है। सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं में दिव्यांगों का पूरा ध्यान रखा जाता है। विकलांगों के पेंशन प्रकरणों को प्राथमिकता से निपटाने के निर्देश दिए हुए है। दिव्यांगों की समस्याएं सुनने के लिए मैं खुद उनके धरना स्थल पर गया था। इसके बाद उनकी कई समस्याओं को हल किया गया है।”
-अरुण चतुर्वेदी, सामाजिक न्याय अधिकारिता मंत्री, राजस्थान</strong>